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गाँव की पगडंडी से गुजर रह था—–
मैंने जो खेतों में देखा और महसूस किया उसे ही वर्णित कर रहा हूँ.
मसूर के खेतों में, सरसों की धारियां,
मटर चढ़ उनपर, लेती अंगराईयां.
हवा चली, झूमी सरसो, गेहूं भी मुस्काए,
चना कहे आजा, तीसी भी खिलखिलाए.
कृषक-बाला इठलाये, मटकाए नैनों को.
तोता हाय उड़ जाय, ललचाये मैनों को.
आलू की पांतो में, गोभी भी दिख जाय,
हरे हरे पत्तों बिच, मूली और गाजर भी,
कहीं दिख जाय, फिर शरमा के छिप जाय,
धरती माँ प्यारी है, कोख में उन्हें सुलाए
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हरे भरे खेतों से बनी शस्य श्यामला
भारत की धरती ये शूरों की प्यारी माँ
भेद नहीं करती यह भूखे और नंगों में,
सबको खिलाती सुलाती दुलराती है,
फिर क्यों विदेशी भला क्यों आके धौंसाए
किसान अन्नदाता है, क्यों न पूजा जाय!
आके अंग्रेजों ने, पहले भी लूटा था,
बंटे थे टुकड़ों में, कड़ी तब टूटा था.
माँ के सपूतों, आओ सब मिल जाओ.
हिस्सा अपना सही मूल्य दे के ले जाओ.
तुम सब हड़ताल करते काम से ही कतराते.
गर किसान अड़ जाय तुम भूखे मर जाओ.
यह किसान दाता है, सबका विधाता है,
खुद नंगा रहता है, सर्द हवा सहता है,
तुम भ्रष्टचारी हो, या अधकपारी हो,
गोलमाल करके, मुनाफाखोरी करते हो,
मेरे अनाज लेकर, गोदामों में भरते हो,
सड़ाते, घुनाते हो, खुदा से न डरते हो,
कोई युवक तब भडकेगा, हाथ उसका फड़केगा,
थप्पर तुम खाओगे, फिर कृपाण खड़केगा.
भगत सिंह जन्मेगा, बोंम्ब कोई छोड़ेगा.
अपना हक़ छोड़े तो स्वत्व झकझोड़ेगा.
सरसो के खेत जो सुनाती राग प्यार की,
आज बड़ी तीखी लगी, आह इस बयार की.
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