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चुनाव के ‘साइड इफेक्ट्स’

jls
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या देवी सर्व भूतेशु, विद्या रूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:
वरदे वीणा वादिनी वरदे!
प्रिय स्वतंत्र रव, अमृत मन्त्र नव, भारत में भर दे! वरदे………………
आज बसंत पंचमी है सभी नर नारी बच्चे विद्यार्थी बूढ़े और जवान माँ सरस्वती के आराधना की तैयारी में मशगूल हैं. काफी लोगों ने छोटी, बड़ी, सुन्दर और भव्य (अपने-अपने सामर्थ्य के अनुसार) माँ की प्रतिमा को खरीदा है और अपने अपने पूजा स्थलों पर एक दिन पहले ही लाकर रख दिए हैं, क्योंकि माँ सरस्वती की पूजा शुबह के समय ही होती है. कुछ बच्चों को आज के दिन ही स्लेट और खड़िया(chalk) पकड़ाई जाती है, ताकि वे माँ शारदे की कृपा से उपयुक्त विद्या को प्राप्त करें! विद्यार्थी अपनी अपनी पुस्तकें भी माँ सरस्वती के बगल में रख दिए हैं ताकि उन पुस्तकों में साक्षात् माँ सरस्वती का आशीर्वाद आ जाय.
मैं भी माँ से यही प्रार्थना करता हूँ कि आज मैं जो भी लिखूं सत्य लिखूं और उसकी सार्थकता को भी प्राप्त करूँ! एक बार प्रेम से बोलें – सरस्वती माता की जय!
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जैसा कि मैंने शीर्षक में लिखा है चुनाव के साइड इफेकट्स — हम सभी जानते हैं कि कोई भी काम किसी ख़ास उद्देश्य के लिए ही किया जाता है पर उसके साइड इफेकट्स यानी ‘उपफल’ अवश्य प्राप्त होता है. उदाहरण के लिए अगर मैं कही जा रहा हूँ तो असल उद्देश्य है गंतब्य स्थल तक पहुंचना, उपफल में रास्ते का भी दर्शन हो जाता है और उसके प्रभाव से हम नहीं बच सकते!
ठीक उसी प्रकार यह चुनाव का मौसम है तो यह सातवां मौसम हो गया… सब कुछ चुनावी रंग में रंग गया है क्या अखबार, क्या टी वी, क्या रेडिओ, इन्टरनेट सबकुछ चुनावी रंग में रंग गए हैं.
मैंने कुछ साइड इफेकट्स को नोट किया है वे क्रमश: इस प्रकार हैं.
१. आम आदमी यानी जनता का महत्व का बढ़ जाना – जिन्हें भूले से भी याद नहीं किया जाता है उस निरीह आम जनता का महत्व अचानक बढ़ जाता है. नेता लोग इन्हें ही भगवान् और देवता की तरह पूजने लगते हैं, आम आदमी के लाभ के लिए घोषणाओं की झड़ी लग जाती है. नेता जो जल्दी नजर नहीं आते, इनके दरवाजे पर पलक पांवरे बिछाये चले आते हैं…… एक वोट की खातिर! यंहां तक कि थप्पड़ जूते भी उनको फूल के सामान लगने लगते हैं. थप्पड़ मारो!… जूते मारो!…. मगर वोट हमें ही देना.
२. इसी समय जाति और धर्म का महत्व समझ में आने लगता है. फलां जाति को आरक्षण दो. फलां धर्म को भी आरक्षण की श्रेणी में डाल दो, भले ही उनके लिए कोई पद न हो. मुस्लिम बहुल इलाके में मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट दो. किसी खास जाति विशेष बहुल इलाके में उसी जाति के उम्मीदवार को टिकट दो….. तभी मालूम होता है कि फलां नेता इस जाति का है और समर्थन के आधार पर पता लग जाता है कि हमारा पड़ोसी किस जाति का है!
३. बहुत सारे लघु और कुटीर उद्योगों को बढ़ावा भी उसी समय मिलता है — जैसे झंडे बैनर बनाने वाले की मांग अचानक बढ़ जाती है पेंटर तब पेंटर बाबु बन जाते हैं. इस तरह बेरोजगारी भुखमरी से जूझ रहे लोगों को रोजगार और भरपेट खाना मिल जाता है. नेता जी की रैली में भीड़ बढ़ाने के लिए काफी लोगों को भाड़े पर लाया जाता है जिन्हें दिन भर की मजदूरी कुछ घंटों में मिल जाती है.
४. काले धन को सफ़ेद करने का बेहतरीन अवसर.- आपने बहुत सारा काला धन छिपाकर रक्खा था. पार्टी फंड में चंदा देकर रसीद ले लीजिये हो गया सफ़ेद! अगर काला धन पकड़ा भी जाता है तो सरकार का खजाना बढ़ता है, जिसे चुनावी खर्च के रूप में आसानी से इस्तेमाल किया जा सकता है. नोटों की गड्डियाँ जो छापेमारी में पकड़ी जाती है उसे देखकर लगता है कि हमारा देश और इसके लोग कितने अमीर हैं. भले ही आम जनता महंगाई का रोना रोती रहे.
५. अचानक महंगाई बढ़ने की डर कम हो जाती है – जिसका जोर शोर से प्रचार भी किया जाता है. शायद इसका तात्कालिक लाभ सत्ताधारी पार्टी को मिल जाये. हर महीने बढ़नेवाले वाले पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्यों में ब्रेक लग जाती है, यहाँ तक कि बजट का सत्र भी आगे की तरफ खिसका दिया जाता है.
६. हथियार उद्योग को बढ़ावा.- उत्तर प्रदेश और बिहार में चुनाव हो और खून खराबा न हो यह बड़े शर्म की बात कही जायेगी. इसलिए इन दोनों राज्यों में इस धंधे को खूब पल्लवित पुष्पित किया जाता है.
बिहार का मुंगेर जहाँ कभी बन्दूक बनाने का कारखाना होता था, आज घर घर में कट्टा से लेकर AK ४७ तक की रायफल बन जाती है और चुनावी मौसम में दुगने दामों में खरीद कर लोग ले जाते हैं चुनावी जंग जीतने के लिए. यही नहीं ये तो बिहार के बोर्डर तक आपको डेलिवरी दे देंगे,…. वहां से जिम्मा आपका, आश्चर्य तो यह जानकार होगा कि डेलिवरी में महिलाओं और बच्चों का इस्तेमाल ज्यादा सुरक्षित होता है, क्योंकि पुलिस जल्दी उनपर शक नहीं करती. चलिए यहाँ भी रोजी रोटी की समस्या अपने आप हल हो जाती है और सरकार को इनके लिए कोई आरक्षण की ब्यवस्था भी नहीं करनी पड़ती. पकडे जाने पर पुलिस अपना हिस्सा लेकर छोड़ ही देती है!
७. मीडिया की खूब चलती है और उन्हें खूब विज्ञापन भी मिलते हैं.- जिस किसी चैनेल (टी. वी.) को देखिये सब चुनावी राग अलापे हुए हैं और गली गली के नेता बोलने का मौका अपने हाथ से जाने नहीं देते हैं. पत्रकार लोग भी इस कला में निपुणता हासिल कर लेते हैं. ओपिनियन पोल और एक्जिट पोल की खूब ढोल पीटी जाती है.
८. क्रिकेटरों की उपेक्षा – सारा मीडिया चुनावी समाचार जुटाने में लगा रहता है. आम आदमी भी चुनावी हलचल ही बड़े गौर से सुनता है. वह सचिन, सहवाग को थोड़े दिनों के लिए भुला देता है. इसीलिये हमारे ये खिलाड़ी मन लगाकर नहीं खेलते क्योंकि इन्हें बहुत कम लोग देख रहे होते हैं. आप ही सोंचिये न जब पूरा देश गणतंत्र दिवश मना रहा हो और इन्हें कहेंगे कि तुम विदेश में क्रिकेट खेलो यह क्या अच्छी बात है? वहाँ न तो मैदान में चीअर गर्ल है न ही हिन्दुस्तानी दर्शक, जो हर चौके छक्के पर उछले नाचे गाये फिर क्या जरूरत है, रन बनाने की या जीतने की. अगर ऐसी स्थिति में सचिन अगर सौंवां शतक लगा भी लेते तो भी उनका नाम BCCI भारतरत्न के लिए भेजनेवाली थी ही नहीं तो क्या हड़बड़ी है, सौवां शतक लगाने की. उनके प्रिय मित्र काम्बली भी कह रहे हैं की सौवां शतक लगाकर क्रिकेट से संन्यास ले लो. यह बात कुछ हजम नहीं हुई! अगर क्रिकेट से सन्यास ले लेंगे तो फिर क्या करेंगे? और लोगों की भांति कोमेंट्री करनी तो सीखी नहीं फिर क्या पता ठाकरे बंधुओं का..
कब उनका पारा गरम हो जाये और कहने लगें कि यह भी उत्तर भारतीयों, झाड़खंदियों की संगत में बर्बाद हो गया है.
९. साहित्यकारों और कलाकारों के महत्व में कमी – अब इस चुनावी माहौल में आप कविता पाठ या किसी गंभीर बौधिक विषय पर चर्चा करना चाहेंगे यह भी राजनेता भला क्यों चाहेंगे. आपको चुनाव और पार्टी पर चर्चा करनी हो और ‘उनको’ मुख्य अतिथि बनाते हैं तब तो ठीक है, नहीं तो दंगा कभी भी भड़क सकता है. ऐसा ताना बाना बुनकर आपके सारे इंतजाम पर पानी फेर सकते हैं. इसलिए ऐसे समय में आप साहित्य चर्चा मत करिए. ‘कुमार बिस्वास’ से तो सबक लीजिये बेचारे अच्छा भला प्रेम रस के गीत गाते थे. लोगों को दीवाना बनाते थे. अब खुद अन्ना के दीवानों में शामिल हो गए हैं.
१०. फिल्मे भी राजनीति पर आधारित होनी चाहिए तभी चलेगी अन्यथा फिल्मकार को अपनी लुटिया डुबोनी पर सकती है. उसे भी अन्ना साहब या पवार साहब को दिखलाकर किसी शुभ मुहूर्त में रिलीज़ करनी चाहिए.
११. छोटे छोटे दल और निर्दलीय नेताओं की चांदी – छोटे दल और निर्दलीय हमेशा फायदे में रहते हैं क्योंकि उन्हें तो हर हाल में सत्ता सुख ही भोगना है क्योंकि कोई भी दल उतना विश्वसनीय नहीं रह गया कि उसे पूर्ण बहुमत देकर जनता सत्तासीन करे. तो अभी से ही छोटे दलों और निर्दलीयों पर नजर गरा कर रखनी होगी.
इतने साइड इफेकट्स नेरी नजर में आये हैं, बाकी आपलोग स्वयम बुद्धिमान हैं.
माँ शारदे की कृपा आपलोगों पर भी बनी रहे!

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