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एक दिन हमारे दूध देनेवाले ग्वाले ने अपनी गायों को टमाटर और पालक खिलाते हुए मुझसे कहा – आज शाम को टमाटर और पालक इतना बच गया कि गरीब किसान उसे फेंक कर जा रहे थे, मैंने कहा लाओ भाई मुझे दे दो, गाय को खिलाएंगे! करीब दो क्विंटल टमाटर और एक क्विंटल पालक वे लोग फेंक कर जा रहे थे…. मुझे तो काफी दुःख हो रहा है उन लोगों पर बेचारा कितनी मिहनत से उपजाता है और उसे उसका मिहनताना भी नहीं मिलता है…… किसान को हमेशा दर्द ही है. यह कविता उसी भावना से लिखी गयी है.
धरती का सीना चीर खोद ,
हम खोज के लाए नीर स्रोत .
पत्थर को मिट्टी बनाकर के,
उपजाऊ उसे बना करके.
हमने उपजाया अधिक फसल,
सुधरेगा अब भी हमारा कल.
यह देख टमाटर कैसी है,
यह लाल गुलाबों जैसी है.
बैंगन की भी बलिहारी है,
पालक की शोभा न्यारी है.
अब देख मिर्च औ धनिया को,
ले आओ यहाँ मत बनिया को.
हम खुद हाटों में जायेंगे,
कीमत वसूल कर लायेंगे.
किसनी मुस्काकर करे विदा,
अब साड़ी लेंगे नयी खुदा!
या नए खिलोने ले आना,
कुछ लेकर ही तुम घर आना.
……………………………………….
इस साल हुई सब्जी अच्छी,
इस हाट में हो गयी यह सस्ती.
फल चाहे कम हो, या ज्यादा,
मिटती नहीं कृषकों की बाधा.
कम हो तो लाले पर जाएँ,
ज्यादा से भी ये घबराएं.
गर मिले न दाम ढुलाई का,
कैसे हो काम भलाई का.
मालिक, थोड़ा ज्यादा ले लो,
ज्यादा गर नहीं, आधा ले लो.
मालिक मुस्काते जाते हैं,
फिर सांयकाल को आते हैं.
किसना का मन अब शांत हुआ,
उसको थोड़ा सा भ्रांत हुआ.
ग्राहक अब नहीं कोई बाकी,
बच रहे टमाटर पालक भी.
लौटाकर क्या ले जायेंगे,
अब फेंक यहीं घर जायेंगे.
गायें माता तो खायेंगी,
देते वह दूध जुरायेंगी
सब्जी जब महंगी होती है,
सारी दुनिया तब रोती है.
सालन महंगा ही हो जितना,
स्वादिष्ट लगे वह ही उतना!
अब देख खुदा तू इधर जरा,
किसना को भी ढारस तू बढ़ा….
किसना को भी ……
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