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गजोधर भाई के ख़ास आग्रह पर उनके गाँव, (जो कि पटना के बिलकुल पास ही है), पिछले दिनों चला गया! गजोधर भाई के रिश्तेदार मदन बाबू ने अपनी माँ की इच्छा के अनुसार इस हरिकीर्तन का आयोजन करवाया था! उन्होंने अपने ख़ास-ख़ास लोगों को अपने यहाँ बुलाया और २० मार्च की शुबह करीब दस-ग्यारह बजे के आस पास का समय निर्धारित किया गया पूजा शुरू करने का और उसके बाद २४ घंटे का अखण्ड हरिकीर्तन जिसे चौपहरा, अष्टयाम आदि भी कहते हैं.
कलियुग में भगवान की प्राप्ति का सबसे सरल किंतु प्रबल साधन उनका नाम-जप ही बताया गया है। श्रीमद्भागवत का कथन है-यद्यपि कलियुग दोषों का भंडार है तथापि इसमें एक बहुत बडा सद्गुण यह है कि सतयुग में भगवान के ध्यान (तप) द्वारा, त्रेतायुगमें यज्ञ-अनुष्ठान के द्वारा, द्वापरयुगमें पूजा-अर्चना से जो फल मिलता था, कलियुग में वह पुण्यफल श्रीहरिके नाम-संकीर्तन मात्र से ही प्राप्त हो जाता है।
रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास ने भी कहा है–
कृतजुग सब जोगी बिग्यानी। करि हरि ध्यान तरहिं भव प्रानी।।
त्रेताँ बिबिध जग्य नर करहीं। प्रभुहि समर्पि कर्म भव तरहीं।।
द्वापर करि रघुपति पद पूजा। नर भव तरहिं उपाय न दूजा।।
कलिजुग केवल हरि गुन गाहा। गावत नर पावहिं भव थाहा।।
कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना। एक अधार राम गुन गाना।।
मदन बाबु के घर के छत के बीच में वेदी और विशेष रूप से बनाई गयी काठ के फ्रेम में सभी भगवान एवं देवी देवताओं की स्थापना की गयी, विधिवत पूजा करने के बाद लगभग पौने बारह बजे से हरिकीर्तन का शुभारम्भ हुआ. कीर्तन मंडली के सदस्य गण विभिन्न आयु, जाति, आय वर्ग के थे – यह उनके वेश भूषा और आव-भाव से लग रहा था. उनमे एक दो महाशय धोती कुरता में थे, तो बाकी पैंट-शर्ट में. उनमे एक ऐसा युवक भी था, जिसके शर्ट से होली का रंग अभी पूरी तरह साफ़ नहीं हुआ था.
पर कुछ चीजें सबमे सामान्य (common ) थी. वह थी उनलोगों के द्वारा कंधे पर गमछा रखने का स्टाइल, बैठने का स्टाइल और एक दूसरे की तरफ देखकर सुर बांधने का स्टाइल.
एक मंडली महिलाओं की भी थी, जिनमे एक लगभग ७५ साल की उम्र वाली पर सबसे तेज और फुर्तीली नजर आ रही थी. और शुरू हुआ ……
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे…….
यही दो पंक्ति लगातार गयी जाती रही पर धुन बदल बदल कर!
धुन कभी भजन के, तो कभी छठ गीत के, कभी झूमर, सोहर आदि लोक गीतों या कभी किसी पुराने फ़िल्मी गीत के! प्रथम सुर से पंचम सुर तक उताड़ चढ़ाव यानी आरोह अवरोह में एक अजीब सी तारतम्यता देखने को मिली जिसे सुनकर मेरे जैसा संगीत की बिलकुल ही समझ न रखनेवाला भी झूमे बिना नहीं रह सका. गजोधर भाई पहले मेरे पास बैठे थे फिर धीरे धीरे आगे बढ़ते गए और कीर्तन मंडली के पास जाकर धीरे धीरे सुर साधने लग गए. फिर क्या था मंडली वालों ने उन्हें भी झाल पकड़ा दिया और अब गजोधर भाई उनकी मंडली से नाता जोड़ चुके थे.
अजीब सामंजस्य, अजीब माहौल की तन मन झूमने को मजबूर हो जाय.
बच्चे, जवान, वयस्क और बुजुर्ग, माताएं एवं बहनें सब का सुर एक, भाव एक, आस्था और समर्पण एक सा! दिन रात चौपरहा २४ घंटे अनवरत पाठ!… कोई हड़बड़ी नहीं …. समय कैसे बीता … पता ही न चला! २४ घंटे पूरा होने के बाद भी महिलाओं का दल क्रियाशील रहा! पर कभी गलती से भी शब्दों के क्रम में कोई हेर फेर नहीं हुआ!
काफी दिनों के बाद अनूठा आनंद, जिसका शब्दों में वर्णन करना दुरूह कार्य ही कहा जायेगा. गायकों में एक और खासियत थी सभी alroundar थे. झाल बजने वाला ढोलक भी उसी ताल से बजाता था, तो कभी वही synthesizer भी उसी तल्लीनता से बजा लेता था. गाते गाते अगर जोश आ जाता तो तो नाचने भी लगता. वृद्ध महिला भी खुद नाचकर दूसरों को उत्साहित कर रही थी. कहने का तात्पर्य यही कि सभी उपस्थित समुदाय क्रियाशील और तल्लीन थे!
इस आयोजन में काफी सारे मेहमान आमंत्रित थे, गाने वालों की मंडली में भी कुछ तो स्थानीय थे और कुछ बक्सर और बनारस से बुलाये गए थे.
अब थोड़ा आयोजन के दूसरे विन्दु पर भी प्रकाश डालना चाहूँगा.
आयोजन कर्ता मदन बाबु की पत्नी (गृहस्वामिनी) कावेरी देवी, कहाँ कहाँ नजर रखे……. सफाई वाला, बाथ-रूम साफ़ कर चला गया. पर बाहर के ‘वाश बेसिन’ को साफ़ करने की सुध न तो उसे रही, न ही किसी अन्य को, फिर क्या करें मालकिन! कावेरी देवी से देखा भी तो नहीं जाता. खुद साफ़ करने लगी … पानी का दबाव कम लग रहा था, तो पम्प चालू कर पुराने वाले बाथ रूम में घुसी नहाने के लिए, क्योंकि ऊपर वाला नया बाथरूम जिसमे ‘गीजर’ लगा हुआ था, खाली होने का नाम ही न ले रहा था. सभी गरम पानी से ही स्नान करना चाहते थे जबकि अब ठंढक कम हो चली थी. ठंढे पानी से भी नहाने में अच्छा ही लगता था. पर गर्म पानी से नहाने का मजा ही कुछ और है….. साथ ही नया वाला बाथरूम आकार में बड़ा है और मार्बल के टाइल्स लगे होने से ज्यादा अच्छा दीखता है. पर, कावेरी देवी ज्यादा इंतज़ार तो नहीं कर सकतीं न! उन्हें फिर पूजा में भी बैठना है. सभी मेहमानों की देखभाल भी करने है! अब टंकी ओवरफ्लो करने लगे तो किसी और को कैसे ध्यान हो सकता है … अन्दर से ही जोर से आवाज लगानी पड़ी, तो एक बच्चे ने माँ की आवाज सुनी और पम्प बंद किया.
साबुन-सर्फ़, सैम्पू, तेल आदि की तो पूछिए मत…… हफ्ते में एक बार साबुन लगाकर नहानेवाले दो-दो बार साबुन लगाकर नहा रहे थे. इससे भी मन न भरा तो नहाने वाले साबुन से कपड़े भी धो रहे थे….. या साबुन को उसके स्थान पर रखने के बजाय बाथरूम के फर्श के ऊपर छोड़ देने में भी क्या बुराई है, बाद में दूसरे लोग तो आएंगे ही नहाने…….
मेहमानों में किसी को पांच बजे सुबह चाय चाहिए, तो किसी को आठ बजे तक सोने की आदत थी. उन सबका ख्याल रखना,…… उनकी सुविधा का ख्याल रखना सब कुछ गृहस्वामिनी को ही तो देखना था…. अगर किसी के दिन चर्या में जरा सा ब्यवधान हुआ तो व्यंग्य की मुद्रा में बोलने से काहे चूकें…….
फल के अम्बार लगे हुए थे. पर उसे सजाकर काटकर देनेवाले भी तो चाहिए……. न दें तो मुंह बिचकाने में क्या लगता है!
कोई चाचा जी हैं, तो कोई सास की सहेली…. सब की उचित खातिरदारी जरूरी थी……. बुलाये हैं तो ध्यान तो रखना पड़ेगा.
मदन बाबु के मित्रगण आये है, तो उनकी खातिरदारी मदन बाबु स्वयम थोड़े ही करेंगे. उन्हें तो हुक्म चलाना आता है. काम करने वाली भी ठीक समय पर गायब हो जायेगी. अब चाहे चाय बनानी हो या लाकर देनी हो कावेरी देवी के सिवा कौन करेगा?
बच्चे भी कम लापरवाह नही हैं अपना पर्स कही रखकर, खोज कही और रहे है. अच्छे खासे पैसे भी थे पर्स में .. पूरा घर और आगंतुक जन भी हक्का बक्का ! पर चिंता तो कावेरी देवी को ही होगी न! ….बच्चों की दादी की बहने यानी ‘मौसी दादी’ भी तो पोते को क्यों दोषी मानेंगी … “बहू को देखना चाहिए था, सम्हाल कर रखना चाहिए था . बच्चे तो नादान हैं, पर उनकी माँ को तो सम्हाल कर रखना चाहिए था”….. शक किस पर करें? जब तक देखा नहीं, इतने लोग आते जाते रहते हैं. पहले से हिदायत दे दी गयी थी. अपने सामान रुपये पैसे सम्हाल कर रखें पर अपने बेटे को कौन समझाए………. आखिर कपड़ों की अलमारी से पर्स मिला तो बच्चा शर्माते हुए बोला — हाँ माँ मैंने ही रखा था पर याद नहीं आ रहा था.
सायकिल चोरी करनेवाले को भी तो इसी मौके का इंतज़ार था. आराम से सबके साथ बैठकर खाना भी खाया और एक गवैया की सायकिल लेकर जाने वाला ही था कि कावेरी देवी को कुछ खटका हुआ….. उसे अहसाह हुआ कि वह बिन बुलाया मेहमान है, फिर क्या था…. जैसे पता चला, सभी ने अपने हाथ को झाड़ लिया. चोर बेचारा पुलिस से बच गया और सायकिल भी बच गयी पर कहीं भी संकीर्तन का तार न टूटा न ही किसी तारतम्यता में कमी आयी.
दुसरे दिन निर्धारित समय पर ही कीर्तन का समापन हुआ अंत में हनुमान चालीसा और कुछ भजन भी गाए गए. २४ घंटे लगातार कीर्तन करनेवाले के चेहरे पर जरा भी थकावट के भाव न थे.
मुझे लगा अपने देश की संस्कृति का असली चेहरा गाँव या छोटे कस्बों में अभी भी संचित है, जिसे हम लोग महानगरीय संस्कृति में खोते चले जा रहे हैं. जिन्दगी के भागदौड़…. अनचाही स्पर्धा के बहाव में हम सभी बहे चले जा रहे हैं, और छूटते जा रहे हैं हमारे अपने लोग, हमारी परम्परा और संस्कृति! जिस पर हम नाज करते हैं….. दो दिन में जितने लोगों से मैं मिला सबमे अपनापन देखा और देखा सहयोग करने की भावना, सहने की भावना….. एक साथ बैठकर एक जैसा खाना खाने की संतुष्टता! साफ़ पत्तलों में चावल-दाल, सब्जी, चटनी, रतवा, पापड़, बड़ी आदि चलने के बाद, दाल के ऊपर घी देने की परम्परा. उसके बाद आदेश होने पर सबलोग एक साथ खाना शुरू करते थे. अंत में सबको दही-बुंदिया और मिठाई दी जाती थी. सबका खाना होने के बाद ही, सबलोग एक साथ उठते थे और हाथ धोने के लिए उचित स्थान पर जाते थे, जहाँ पर जग में पानी लिए नौजवान खड़े रहते थे और सबका हाथ धुलाते थे……….
अब आयी विदाई की घड़ी जो भावनात्मक रूप से ज्यादा कष्टदायक होती है. परम्परा के अनुसार सभी जाने वालों को जाते समय कुछ फल, मिठाईयां, प्रसाद और वस्त्र के साथ कुछ नगद राशि भी देकर विदा किया गया……. विछुड़ते समय दोनों पक्षों के नेत्र अश्रुपूरित थे, पर आने वाले को तो जाना ही है!
हरि ॐ! हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे! हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे!
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