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एक राज मिस्त्री जिसने कभी एक बहुमंजिली ईमारत को बनाया था, उसके सामने खड़ा होकर दरबान से गिदगिड़ा रहा था
भाई मेरे दरबान जी,
विनती मेरी सुन लीजिये
मुझ पे करिए कृपा,
इमारत के मालिक से मिलने दीजिये.
क्या कहा?-
हम अन्दर नहीं जा सकते!
आपको पता नहीं,
मैं तो इसके नींव के,
गड्ढे में जा चुका हूँ.
तब यहाँ घास का मैदान था
चारो तरफ खेत और खलिहान था.
मेरे मुन्ने की अम्मा ने भी,
की थी ईंटों की ढुलाई!
मुन्ना तब बहुत छोटा था मेरे भाई!
ईंटें जो गीली होती थी
सीमेंट के साथ रसीली होती थी.
इस का मालिक तब
मेरे साथ खड़ा होता था
अक्सर वह हमलोगों के साथ ही
चाय भी पी लेता था.
क्या कहते हो?
आज वह वातानुकूलित कमरे में रहता है
तब तो वह धूप और बरसात में भी
हमारे साथ खड़ा रहता था.
मुन्ने को उसने कई बार गोद में भी उठाया था
मेरा मुन्ना भी उसे देख मुस्कुरा देता था.
एक बार तो,
उसने मालिक की गोद भी गीली कर दी थी
तब मुन्ने की अम्मा ने कहा था –
बाबूजी कपड़े बदल लो, मैं उसे धो देती हूँ
मालिक ने कहा था कोई बात नहीं
यह तो तुरंत सूख जायेगा
बच्चा है,
इसका पेशाब से तो गोद होता है पवित्र
तब उनका स्वभाव ऐसा ही था मेरे मित्र!
आज उनके पास समय नहीं है मिलने को
पर तब वे नहीं देते थे छुट्टी एक भी दिन
रविवार को भी चलता था काम
करते थे निगरानी वे रात और दिन!
ठीक है मैं जाता हूँ,
हो सके तो दे देना सन्देश-
राज आया था
आकर अपना दुखड़ा सुनाया था.
अब उम्र हो गयी है इसलिए काम नहीं कर पाता हूँ
एक शाम खाता हूँ तो दुसरे शाम रमजान मनाता हूँ.
मुन्ना बड़ा हो गया है,
वह कठिन परिश्रम से डरता है
आवारा लड़कों के साथ विचरता है
अगर उनके पास उसके लायक
हो कोई काम तो उसे रख लें
पर यह नहीं कहूँगा कि
तुम्हे हटाकर मेरे बेटे को रख ले.
भूख बड़ी ‘बेरहम’ होती है
वह तो न तेरी न मेरी होती है!
मुन्ने की अम्मा का आज उपवास है
मुन्ना भी बड़ा उदास है
एक मालिक का ही आश है
तू उसी का तो दास है!
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