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मेरे बाबूजी की लघुकथा !

jls
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fathers-day[1]

दूर जब किसी बच्चे के रोने की आवाज भी सुनाई पड़ती थी.. लगता था, उन्ही का बच्चा रो रहा है और वे तुरंत पहुँच जाते थे यह जानने के लिए कि वह बच्चा क्यों रो रहा है .. अगर उसको कोई मार रहा है, तो मारनेवाला समझ ले कि उसका हाथ रोकने वाला आ गया है और अब उसे डांट पड़ने वाली है. अगर बच्चा किसी चीज के लिए रो रहा है, तो संभवत: उसे गोद में लेकर चुप कराया जायेगा और एक दो लेमनचूस देकर उसकी रुलाई को शांत किया जायेगा … ऐसे थे मेरे बाबूजी… मेरे गाँव में जल्दी किसी को यह हिम्मत ही नहीं होती थी कि वह अपने बच्चे को भी मेरे बाबूजी के सामने मार सके या ज्यादा डांट सके …
मैं ज्यादातर अपनी माँ के सामने किसी चीज के लिए जिद्द करता था और माँ मुझे तबतक डांटती या दूर भागने का प्रयास करती थी जबतक कि मेरे बाबूजी आसपास न हों, उनके आते ही मेरी इच्छाएं पूरी कर दी जाती थी.
बचपन में मैं दूध दही से दूर भागता था…. आलू की सब्जी छोड़ किसी और सब्जी खाने की इच्छा ही नहीं होती थी … यह बात घर में किसी को पसंद नहीं थी … मेरे पिताजी को भी नहीं … कहते हैं कि (मुझे होश में आने का बाद बतलाया गया) … मेरे पिताजी ने दुखी होकर एक ही दिन गाय, भैस और उनके बच्चे को बेच दिया अपने कलेजे पर पत्थर रखकर….. ( उनका कहना था कि जब मेरा बेटा ही दूध दही नहीं खाता है तो इन गाय, भैसों को रखने का फायदा ही क्या?) .. जबकि उन्हें दूध दही और घी आदि खूब पसंद थे .. उस समय शाकाहारी ब्यक्ति की समाज में इज्जत थी और मांसाहारी को हेय दृष्टिकोण से देखा जाता था…. माँ से बर्दाश्त नहीं हुआ और दूसरे घर से दूध खरीद कर लाने लगी, जिसमे से बाबूजी के साथ सबको थोड़ा थोड़ा मिलने लगा.
मेरे पिताजी जन्मजात किसान थे और मजदूरों के साथ खुद भी खेतों में खूब मिहनत करते थे और अच्छी फसलें देखकर खुश होते थे. वे स्वयम ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे, पर उनके मन में यह इच्छा जरूर थी कि अपने बच्चे को पढावें और उन्होंने मेरे बड़े भ्राता को पटना के बी. एन. कॉलेज से बी. एससी. पास करवाया तो उनका नाम आस-पास के गाँव में भी हुआ, उस समय मैट्रिक पास करना भी मेरे पिछड़े गाँव के लिए असामान्य सी बात थी. पटना मेरे गाँव से था तो मात्र २५ कि मी दूर, पर आवागमन का साधन बिलकुल नहीं के बराबर था ६ कि मी पैदल, फिर ट्रेन और उसके बाद भी पटना जंक्सन स्टेसन से पैदल ही कॉलेज तक जाते थे मेरे बड़े भ्राता. छुट्टियों के दिनों में वे खेत घर के कामों में भी मन लगाकर भाग लेते थे.
मेरे पिताजी शुबह चार बजे तो जग ही जाते थे और सभी खेतों में घूमकर ६-७ बजे तक वापस घर आ जाते थे. तबतक शायद मैं सोया ही रहता था. पिताजी डाँटते नहीं थे पर देर तक सोना उन्हें पसंद नहीं था, इसलिए दीदी मुझे चुपके से जगा देती थी और मैं पिताजी की नजरें बचाकर बाहर निकल जाता था.
हलका जलपान लेकर या शरबत पीकर भी वे खेतों में चले जाते थे. कभी हल बैलों के साथ तो कभी मजदूरों के साथ ..
मैं दोपहर को उनलोगों के लिए यदा-कदा खाना-पानी लेकर जाता था … वे खुश होते थे और हाथ मुंह धोकर वही जलपान करने लग जाते. मैं कौतूहल वश कभी हल चलाने की कोशिश करता या कुदाल पकड़ता तो वे प्यार से मना करते… थोड़ा और बड़ा हो जा, फिर खेत का काम सम्हालना !
मेरे बाबूजी बहुत ही नियमित जीवन ब्यतीत करते थे .. प्रकृति के आस-पास ही रहते थे, इसलिए उन्हें जल्दी कोई बीमारी भी नहीं होती थी, दिनभर खेतों में काम करने के बावजूद, शाम को रामायण लेकर दालान में बैठ जाते थे और लालटेन की रोशनी में रामायण पढ़कर लोगों को सुनाते और समझाते थे…. मेरे गाँव के बहुत सारे लोग मेरे बाबूजी को श्रद्धा की नजरों से देखते थे. वे एक गृहस्थ होते हुए सदाचार का भरपूर पालन करते थे. हर पूर्णमासी या विशेष पर्व त्यौहार के दिन पटना जाकर गंगा-स्नान करना और वहां से कुछ मिठाई आदि लेकर ही घर लौटना, उनकी दिनचर्या में शामिल था. ऐसा कोई दिन नहीं होता था, जिस दिन वे बिना नहाये और पूजा किये खाना खाए होंगे! यह नियम उनका तबतक चलता रहा, जबतक कि वे लाचार होकर बिस्तराधीन नहीं हो गये. उनके अंतिम क्षणों में मैं और मेरे भैया, दोनों ने यथासंभव सेवा की .. मैं समझता हूँ आज भी उनका आशीर्वाद हम सबके साथ है – उनका ब्रहम वाक्य – “बेटा हो सके तो किसी का भला कर दो, पर किसी का बुरा चाहना भी मत!”
उनके उदगार में कुछ पक्तियां
कोई बच्चा जब रोता हो
उसका बापू ही धोता हो
तब खैर नहीं होगी उसकी
खायेगा चाचा की फटकी(फटकार)
बच्चे को गोद उठाकर के
उसे लेमनचूस खिला कर के
बाबूजी तब खुश होते थे
कंधे पर उसको ढोते थे.
मैं हूँ किसान का वह बेटा
देखी है मैंने उनकी ब्यथा
गर्मी में लू जब चलती थी
धरती प्यारी जब जलती थी
बाबूजी तब खुश होते थे
वे खलिहानों में होते थे
बारिश हो या आंधी-पानी
खेतों में जमता था पानी
बाबूजी तब खुश होते थे
खेतों में हल को जोते थे.
सर्दी उनको न सताती थी
सरसों उनको बहलाती थी
जब सर्द हवा उनको लगती
आत्मा तभी उनकी जुड़ती
बाबू जी तब खुश होते थे
खेतों में ही वे सोते थे!
पेड़ों के नीचे डाल खाट
लेते चना मटर की स्वाद
चाचा जी, हरा चना दे दो
अपनी मर्जी से खुद ले लो
बाबूजी तब खुश होते थे
बच्चे जवान संग होते थे.
गेहूं की बाली लहराती
सरसों की फलियाँ बलखाती
आलू के संग हरी भाजी
धनिया पालक सह मेथी भी
बाबूजी तब खुश होते थे
गाजर मूली को धोते थे !
होली में रंग लगाते थे
फगुआ भी संग में गाते थे
बहुएँ घूंघट में आती थी
चरणों में रंग चढ़ाती थी
बाबूजी तब खुश होते थे
पोते को गोद में लेते थे.

प्रभु तुम मुझको इतना देना
भूखा न रहे मेरा ललना
आ जाये अगर कोई मेहमान
सेवा कर हो जाऊं निहाल
नहीं होना चाहूं धनवान
बच्चे बन जाये बुद्धिमान
बाबूजी तब खुश होते थे
हम कक्षा में अव्वल होते थे.
ये है बापू की छोटी कथा
मैं हूँ उनका ही वह बेटा!
मैं हूँ उनका ही वह बेटा!….

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