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जिस इलाके की यह कहानी है, वह पटना के पास का ही इलाका है, जहाँ की भूमि काफी उपजाऊ है. लगभग सभी फसलें इन इलाकों में होती है! धान, गेहूँ, के अलावा दलहन और तिलहन की भी पैदावार खूब होती है. दलहन में प्रमुख है मसूर, बड़े दाने वाले मसूर की पैदावार इस इलाके में खूब होती है. मसूर के खेत बरसात में पानी से भरे रहते हैं. जैसे बरसात ख़तम होती है, उधर धान काटने लायक होने लगता है और इधर पानी सूखने के बाद खाली खेतों में मसूर की बुवाई कर दी जाती है. मसूर के खेत, केवाला मिट्टी (चिकनी मिट्टी) वाले होते हैं. इन खेतों में बरसात के बाद दरारें फट जाती हैं, फिर भी इनमे नमी बरक़रार रहती है. मसूर, चना, मटर, खेसारी, सरसों, राई, तीसी आदि को पानी नहीं देना पड़ता है. प्राकृतिक वर्षा जो शरद ऋतू में होती है, वही इनके लिए पर्याप्त होता है. शरद ऋतू में इन खेतों से होकर गुजरना बड़ा ही मनभावन होता है! कहते है – “अस्सल का बेटी और केवल का खेती! अगर सम्हल गया तो गंगा पार, नहीं तो बंटाधार” !
होली से पहले ही इन फसलों की कटाई कर ली जाती है और खलिहान में इनके दाने अलग कर, खलिहान से ही बिक्री कर दी जाती है. शहर के ब्यापारी बैलगाड़ी पर बोड़े में भरकर इन्हें अपने गोदामों में संचित करते हैं और आवश्यकतानुसार दाल के मिलों, या तेल के मिलों में इनको इस्तेमाल के लायक बनाकर बाजारों में बेचा जाता है.
होली के आस पास जब बैलगाड़ियाँ गांवों में आती है, तो बच्चों के अन्दर कौतूहल जगता है … इन बैलगाड़ियों की गिनती करने का …एक, दो,,,दस, ग्यारह … पचास, इकावन … बैलगाड़ियों की लाइन लग जाती है.
भुवन के पास से ब्यापारी को ढेर सारा माल एक ही जगह पर मिल जाता है, अन्य किसान भी इन्ही ब्यापारियों को अपना माल बिक्री कर देते हैं. यह कहानी उस समय की है जब सड़कें कच्ची थी और बैलगाड़ियाँ ही गांव के खलिहानों तक पहुँच सकती थी.
ब्यापारी भुवन से मोल भाव कर रहा था – “५०० रुपये प्रति मन (१ मन = ४० सेर लगभग ४० किलो ).”…. “नहीं, ४५० रुपये का भाव मिलेगा”….. इस मोल भाव के बीच कही सौदा पक्का हो जाता, तभी हरखू वहां पहुँच गया और बोला – “सेठ जी, ले लीजिये. बेचारे का ऐसे ही इस साल बहुत नुकसान हो गया है, भुवन का… क्या है कि आग लग गयी थी न, इसके गांज में!” … ‘आग लग गयी थी’ सुनकर सेठ (ब्यापारी) के कान खड़े हो गए और वह मसूर के दानों को अनुवीक्षण वाले नेत्र से देखने लगा … “अरे, इसमे तो बहुत दाना काला है, यह तो ४०० रुपये के ही भाव पर बिकेगा!”
भुवन का तो खून ही सूख गया और वह ठेलते हुए हरखू को वहां से ले गया – “साला बड़ा सयाना बनता है, एक तो उस समय तुम्ही लोगों ने आग लगवाई और ऊपर से आ गए दलाली करने!” – चंदर भी खींच कर ले गया और गाँव वालों के सामने उसकी भी धुनाई कर डाली…. “बिफ़न और बुधना को यही चढ़ाया था, आग लगाने के लिए! नहीं तो उन सालों की इतनी हिम्मत न थी!” गांव वाले तो गांव वाले ठहरे, दो ग्रुप यहाँ भी थे, कोई हरखू को समर्थन करता तो कोई भुवन और चन्दर को ….भुवन का गुस्सा सातवें आसमान पर था, वह तो हरखू को मार ही डालता, पर लोगों के बीच बचाव से उस दिन हरखू की जान बच गयी.
बड़ी अजीब स्थिति है … भारत गांवों का देश है. लगभग ७०% आबादी आज भी गांवों में रहती है … कहते हैं, यहाँ बड़ा मेल-मिलाप होता है, सभी एक दुसरे के सुख-दुःख में साथ देते हैं, पर आजकल हर जगह राजनीति, इर्ष्या, डाह, जलन आदि का वातावरण बन गया है. जले पर नमक छिडकने से भी लोग बाज नहीं आते!
चाहे जो हो, तैयार अनाज को बेंचना ही पड़ता है, आखिर उसे घर में कहाँ रखा जा सकता है. फसल तैयार होने पर महाजन का ऋण भी चुकाना पड़ता है, जो खाद, बीज, डीजल आदि की खरीददारी के लिए लेने पड़ते हैं.
अब बिफन, बुधना के अलावा हरखू भी इन दो भाइयों का प्रत्यक्ष शत्रु बन गया था…. लोग इमानदार आदमी का भी जीना हराम कर देते हैं!
दरअसल सबका जड़ गौरी ही थी, सुन्दर के साथ, मिहनती और शालीन थी. भद्दे मजाक को बर्दाश्त न करती और उलटकर कड़ा जवाब देती! शोख किशम के लोग चाहते थे, थोडा आंख सेंकना और अगर मौका मिल गया तो नाजायज फायदा भी उठाना!
वो कहते हैं न कि मर्द बाहर से कमाकर लाते हैं और स्त्री उस धन को संजोकर लक्ष्मी बनाती है. ईर्ष्यालु लोगों के बीच भी भुवन और चन्दर को हर साल मुनाफा होता और कुछ खेत भी बढ़ जाते. खेत खरीदने में भी गांव में प्रतिद्वंदिता का सामना करना पड़ता. सर्वमान्य मुखिया जी से सहमती लेनी पड़ती, सूरज बाबु से भी मुकाबला करना पड़ता था और इस सबके चक्कर में खेत का दाम बढ़ जाता था. फिर भी ये दोनों भाई हार नहीं मानते और अपनी पूरी लगन के साथ, निष्ठा के साथ काम में लगे रहते.
दिन गुजर रहे थे. चंदर का लड़का इंजीनियरिंग की पढाई करने के लिए बड़े शहर में चला गया था. छुट्टियों में आता और सभी बड़ों को पैर छूकर आशीर्वाद लेता. इस किश्त को यहीं समाप्त करते हैं. शेष कथा अगले किश्त में!
क्रमश:)
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