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परम आदरणीय, न्यायमूर्ति महोदय!
मैं एक आम आदमी
नहीं जनता कानून
इसीलिये नहीं होता उनसे भय!
अनजाने में मुझसे अपराध हो गया,
एक अपराधी को बचाने का
मुझसे पाप हो गया!
जानता हूँ, सजा मिलेगी कठोर,
सजा से न मैं डरता हूँ,
ऐसे भी नित्य ही तो मरता हूँ.
थोड़ी मोहलत मुझे दे दीजिये,
बिटिया जवान हो गयी है,
उसे अच्छे घर में ब्याहने तक
बेटे की नौकरी मिल जाने तक
बाबूजी भी बूढ़े हो चले हैं,
अम्मा भी कुछ दिनों की ही मेहमान है
इन सबसे मुझे निपट लेने दीजिये
फिर मैं स्वयम आ जाऊँगा
जल्दी मुक्त होने की भी
प्रार्थना नहीं करूंगा!
मैं मानता हूँ,
मै कोई बड़ा सिलेब्रिटी नहीं हूँ,
मेरे चलते
किसी का नुक्सान नहीं होने वाला,
मैं तो सिर्फ हूँ अपने घर का रखवाला!
न तो मैं नेता हूँ, न ही बड़े खानदान का,
मेरे आगे पीछे न ही कोई टाइटिल है
किसी धरती के भगवान् का!
फिर भी आप तो हैं न्याय की मूर्ति,
समझ सकते हैं आम आदमी के दर्द को
किसी अनपढ़ गंवार स्त्री के मर्द को.
माफी नहीं चाहता हूँ,
थोड़ी मोहलत ही मांगता हूँ.
आपने संजय को मोहलत दी है,
उसके दर्द को है समझा!
इसीलिये तो कर रहा मैं आपसे इल्तजा,
आप भी तो कभी सेवा मुक्त होंगे,
मार्कन्डेय जी के गुणों से युक्त होंगे!
फिर यह अभ्यास अभी से करिए न!
आम आदमी की दुआ कबूल करिए न!
आम आदमी की दुआ कबूल करिए न!
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