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आश्चर्य तो तब होता……

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दैनिक जागरण के १२ मई (दिल्ली) आडवाणी ने शनिवार को ब्लॉग पर लिखा, ‘मुझे दुख है कि हम कर्नाटक में हार गए हैं। लेकिन मैं आश्चर्यचकित नहीं हूं। आश्चर्य तब होता, जब हम जीत जाते।’ कर्नाटक मामले से पार्टी के निपटने के तरीके की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा कि यह बिल्कुल अवसरवादी रवैया था। उन्होंने कहा कि वहां संकट के प्रति भाजपा की प्रतिक्रिया कोई मामूली अविवेकपूर्ण नहीं थी।

येद्दयुरप्पा के कार्यकाल में पार्टी के भ्रष्टाचार से निपटने पर आडवाणी ने कहा कि अगर भाजपा ने तत्काल ठोस कार्रवाई की होती तो स्थिति कुछ अलग होती। लेकिन कई महीने तक उनके अपराध को छोटा मानकर उसे माफ करने का प्रयास चलता रहा। यह दलील दी गई कि अगर पार्टी ने व्यावहारिक नजरिया नहीं अपनाया तो वह दक्षिण में अपनी एकमात्र सरकार खो देगी। आडवाणी ने यह भी कहा कि भाजपा ने येद्दयुरप्पा को बाहर नहीं निकाला बल्कि अलग पार्टी बनाने के लिए वह खुद बाहर हो गए।
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श्री आडवाणी का ब्लॉग के माध्यम से यह विचार व्यक्त करना भाजपा के अन्दर की राजनीति को किस कदर उजागर करता है, यह राजनीतिक पंडित विश्लेषण करेंगे. पर मेरी नजर में यही लगता है की भाजपा के अन्दर सबकुछ ठीक ठाक नहीं है. कर्णाटक चुनाव के बाद भाजपा के आला नेताओं की बैठक में मोदी का दांत दर्द के बहाने न शामिल होना और अभी तक मौन व्रत धारण करना … शिवसेना के मुखपत्र सामना में संजय राउत का मोदी पर हमला … यह उठापटक भाजपा अथवा एन डी ए को कहाँ ले जायेगी, अनुमान करना ज्यादा कठिन नहीं है. शरद यादव और नितीश कुमार का पहले से ही हमला झेल रहे मोदी और राजनाथ, अब कौन सा रणनीति अपनाएंगे ?
वर्तमान प्रधान मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का इस्तीफ़ा अगर हो भी गया …देश अगर मध्यावधि चुनाव के समर में चला भी जाय तो क्या परिवर्तन होने वाला है?
मेरी राय में भाजपा को अथवा एन डी ए को पहले अपना घर ठीक करना चाहिए … अपना आचरण कुछ ऐसा दिखलाना चाहिए कि आम जनता को लगे कि पार्टी कांग्रेस या अन्य भ्रष्ट पार्टियों से अलग है. संसद से सड़क पर हल्ला बोल से तो कुछ शायद ही सम्भव है. जनता, जिसे मार्कंडेय साहब ९०% बेवकूफों की जमात कहते हैं, उतनी तो नहीं है … अगर उतनी होती तो गुजरात में तीसरी बार मोदी को सत्तासीन नहीं करती और उत्तराखंड में खंडूरी को तथा हिमाचल प्रदेश में प्रेम कुमार धूमल को ‘रिजेक्ट’ नहीं करती.
विचारों में मतभेद होना सही लोकतंत्र की पहचान है, पर मतभेदों से ऊपर देश हित, प्रजा हित सर्वोपरि है. कोई भी भला ईमानदार, बुद्धिजीवी आज राजनीति में जाने से कतरा रहा है. कुछ नए विचारधारा वाले जैसे ‘आम आदमी पार्टी’ के लोग अगर कोशिश में हैं भी, तो उनका जनाधार अभी बनना बाकी है! उनके अन्दर भी मतभेद हैं साथ ही भरपूर प्रचार के लिए धन-बल की कमी भी दीख रही है.
दूसरी बात, अगर ईमानदार हैं तो राजनीति में क्यों जायेंगे? …डॉ. मनमोहन सिंह की तरह चारोखाने चित होने के लिए, या ‘पोपट’ जिसकी चाभी किसी और के हाथों में हो, उसके लिए! राजनीति केवल ईमानदारी से नहीं चलती … इसमें धन, कल, बल, छल, की जरूरत होती है ..और उससे भी ज्यादा जरूरी होता है… जनता की नजरों में पाक-साफ़(लोकप्रिय) होना ..वह मोदी में है! पर उनके संगी साथी चाहें तब न?

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अंत में मेरा निष्कर्ष यही है कि एन डी ए के सभी घटक दलों को एक साथ बैठकर, मंत्रणा कर किसी एक व्यक्ति को प्रधान मंत्री का उम्मीदवार घोषित कर साझा रणनीति बनाने की आवश्यकता है, तभी कांग्रेस का मुकाबला कर सकेंगे और जनता भी कोई सही विकल्प चुनने में अपना योगदान करेगी. अन्यथा जैसा चल रहा है, वैसा ही चलता रहेगा…. लूट का बाजार सजता रहेगा, अन्याय, अनाचार बढ़ता जायेगा, बेरोजगारी भुखमरी में लोग एक दूसरे से झगड़ेंगे और गृहयुद्ध की स्थिति पैदा न हो जाय, इसकी प्रबल सम्भावना है. ऐसे में पकिस्तान और चीन, बंगलादेश और और श्रीलंका हमारी आरती तो उतारेंगे नहीं. अभी पकिस्तान में नवाज शरीफ की जीत भी यह बतलाती है कि आम नागरिक अमन पसंद होता है और वह सर्वश्रेष्ठ को ही चुनता है!
जय भारत! जय हिन्द!

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