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मधुशाला से—

jls
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किसी भी बात को सबसे अधिक महत्वपूर्ण तरीके से कहने की कला का नाम कविता है कवि को अपने पाठकों से सीधा संबंध बनाना चाहिए. सिफारिश से न प्रेमी मिलता है न पाठक. कवि को आत्मविश्वासी होना चाहिए – हरिवंश राय बच्चन.
मधुशाला की रचना १९३३ में हुई. १९३४-३६ में यह ज्यादा चर्चित हुई. उसी अवधि के लेखक श्री रामवृक्ष शर्मा बेनीपुरी ने बिहार के युवकों को मधुशाला गा-गाकर शराब पीते देखा था और वे कह रहे थे, बच्चन अगर बिहार में कदम रक्खेगा, तो उसे मैं गोली मार दूंगा! श्री प्रफुल्ल चन्द्र ओझा ‘मुक्त’ प्रयाग में रहते थे. पर वे बिहार आया जाया करते थे. मुक्त जी ने बेनीपुरी जी सिर्फ इतना कहा – लेखक ने शराब छुई नही. बच्चन आगे लिखते हैं, इसी बीच बिहार के मुजफ्फरपुर से निमंत्रण आया. मैंने स्वीकार कर लिया. मेरी पूर्व पत्नी श्यामा ने कहा – “बिहार न जाव, बेनेपुरी तुमका गोली मार देइहैं.” – “बेनीपुरी हमका गोली मार देइहैं तो हमार मधुशाला अमर होय जाई!” बिहार पहुंचा, तो बेनीपुरी को दूसरा ही पाया. वे मुझे घर पर बुला-बुलाकर मधुशाला सुनते थे और पिंटू के यहाँ का रसगुल्ला भी खिलाते थे.
भक्त तो आत्मसमर्पण करके वह विस्मृति ढूढता है, जो हर्ष और विषाद से परे है. बादल अपना अपनापन अगणित बूंदों में, बूंदे जलधारों में, जलधारा नदियों में और नदियाँ अपना अपनापन समुद्र में खोने को आतुर है. पृथ्वी अपना अपनापन अगणित वृक्ष-बेली-पौधों में, पौधे पुष्प और कलियों में, पुष्प सौरभ समीर में. पतंगा दीपक आगे, दीपक दिवस के आगे, दिवस रजनी के आगे रजनी शशि तारक आदि सूर्य के आगे अर्पण करने को आतुर-व्याकुल है. इसी तरह गायक, वादक, चित्रकार, शिल्पकार, कवि सभी अपना अपनापन ही व्यक्त करते हैं, जो किसी के ह्रदय को छू सके! “चरम अभिलाषा आत्मानंद नहीं, आत्म समर्पण है”.
मदिरा जिसे पीकर भविष्यत के भय और भूतकाल के दारुण दुःख दूर हो जाते हैं. … आह, जीवन भी तो मदिरा है जो हमें विवश होकर पीनी पड़ती है, कितनी कडवी है! ‘यह मदिरा’ ‘उस मदिरा’ के नशे को उतार देगी.
कवि का ह्रदय केवल कवि का नहीं है. उसके ह्रदय में त्रिकाल और त्रिभुवन सोते हैं, सृष्टि दुधमुही बच्ची के समान क्रीड़ा करती है और प्रलय नटखट बालक के सामान उत्पात मचाता है. मेरे प्यारे देख, अखिल प्रकृति मधुशाला बनकर झूम रही है. आ, तुझे पुरुष बनाकर मैं माया रूपिणी चंचला साकीबाला बनूँ. मैं अपने हाथों से प्याला भर-भरकर तेरे अधरों से लगाऊँ और तू अनंत काल तक अनंत पिपाशा से इसे पीता चला जाये.
आइये अब मधुशाला की कुछ पंक्तियों का रसास्वादन करें!
मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला,
प्रियतम अपने ही हाथों से आज पिलाऊँगा प्याला,
पहले भोग लगा लूं तेरा फिर प्रसाद जग पायेगा,
सबसे पहले तेरा स्वागत करती मेरी मधुशाला.
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अलग अलग पथ बतलाते सब, पर मैं यह बतलाता हूँ,
राह पकडकर एक चलाचल, पा जायेगा मधुशाला.
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मुख से तू अविरत कहता जा मधु, मदिरा मादक हाला
हाथों में अनुभव करता जा एक ललित कल्पित प्याला,
ध्यान किये जा मन में सुमधुर, सुखकर सुन्दर साकी का,
और बढ़ा चल, पथिक, न तुझको दूर लगेगी मधुशाला.
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एक बरस में एक बार ही जगती होली की ज्वाला,
एक बार ही लगती बाजी जलती दीपों की माला,
दुनियावालों किन्तु किसी दिन मदिरालय में आ देखो
दिन को होली रात दिवाली रोज मानती मधुशाला.

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सूर्य बने मधु का विक्रेता, सिन्धु बने घट, जल हाला,
बदल बन बन आए साकी, भूमि बने मधु का प्याला,
झड़ी लगाकर बरसे मदिरा, रिमझिम रिमझिम रिमझिम कर.
बेली-विटप-तृण बन मैं पीऊँ, वर्षा ऋतु हो मधुशाला.
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प्रति रसाल तरु साकी सा है, प्रति मंजरिका है प्याला,
छलक रही है जिसके बाहर, मादक सौरभ की हाला,
छक जिसको मतवाली कोयल, कूक रही डाली डाली,
हर मधु ऋतु में, अमराई में, जग उठती है मधुशाला.
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दुत्कारा मस्जिद ने मुझको कहकर है पीने वाला,
ठुकराया ठाकुरद्वारे ने देख हथेली पर प्याला,
कहाँ ठिकाना मिलता जग में भला अभागे काफ़िर को,
शरणस्थल बनकर न मुझे यदि अपना लेती मधुशाला.
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मुसल्मान औ’ हिंदू हैं दो, एक मगर उनका प्याला,
एक मगर उनका मदिरालय, एक मगर उनकी हाला,
बैर बढ़ाते मंदिर मस्जिद, मेल कराती मधुशाला.
और अंत में श्री बच्चन कहते हैं-
बड़े बड़े नाजों से, मैंने पाली है साकीबाला,
कलित कल्पना का ही इसने, सदा उठाया है प्याला,
मान दुलारों से ही रखना, इस मेरी सुकुमारी को,
विश्व तुम्हारे हाथों में अब, सौंप रहा हूँ मधुशाला.
तो मित्रों, मैं आप सबसे आग्रह करता हूँ – आपने अगर मधुशाला पढी है तो फिर से पढ़िए अगर नहीं पदः है तो अवश्य पढ़िए. आपका मदिरा के मत्त का अनुभव हो जाएगा!
दीपावली की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ

diwali

– सादर
– जवाहर लाल सिंह

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