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ऊटपटांग…

jls
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कुछ पटाखे जोर से आवाज करते हैं …धड़ाम ! कुछ करते हैं …फटाक ! और कुछ हो जाते हैं… फुस्स !
कुछ तो फटते ही नहीं शुबह बुहार लिए जाते और फेंक दिए जाते हैं, कूड़े के ढेर पर …गरीबों के बच्चे, कूड़ा चुननेवाले उनमे से चुनते हैं, साबूत पटाखे और उसे जलाकर कितना खुश होते हैं … कभी देखा है आपने?
शादी विवाह के अवसर पर भोज के आयोजन में कुछ लोग तो जम कर खाते हैं. कुछ थोड़ा सा लेकर संतुष्ट हो जाते हैं. कुछ तो गिफ्ट देने के लिए ही आते हैं और सलाद, मीठा या आइसक्रीम खाकर वर-वधु को आशीर्वाद देकर चल देते हैं. इनमे एक प्रकार के और भी लोग होते हैं, जो हर आइटम को लेते है जरूर, पर आधा से अधिक भोजन थाली में छोड़ देते हैं. बचा हुआ भोजन का ढेड़ शुबह तक ख़राब हो जाता है और दुर्गन्ध ऐसी निकलती है कि आवारा पशु भी आस-पास नही फटकते . यह संसार ऐसा ही है… कुछ नदियों का निर्मल जल बहुत ही मीठा और स्वादिष्ट होता है, कुछ तो गंदे नालों का बोझ लेकर बहती हैं और सागर में जा मिलती हैं. समुद्र के पास अथाह जल है, पर पीने लायक नहीं.
बड़े बड़े शहर विकसित हो रहे हैं, वहां प्रदूषण का स्तर उतना ही ज्यादा है. छोटे शहर जो कम विकसित हैं, गंदे भी हैं, पर हवा में प्रदूषण का स्तर उतना नहीं है. गांवों में हवा साफ़ है, खेतों में हरियाली है, पर आँखों के सामने अँधेरा है, विकास की रोशनी से दूर… रोजगार के अवसर नहीं …टी वी, मोबाइल, इंटरनेट नहीं
विकसित देशों में गांव भी विकसित होते हैं. वहां आबादी पर नियंत्रण है. विकास की गति तेज है, लोग शिक्षित और संपन्न हैं. पर वहां सामाजिक मिलन कम होता है, लोगों की पास समय नहीं है- मिलने-जुलने का.. काम और सिर्फ काम …हफ्ते के अंत में मौज मस्ती… शांति नहीं …शांति की तलाश में वे रुख करते हैं भारत का, आध्यत्म की खोज में निकल पड़ते हैं. उन्हें महसूस होता है कि किसी को मदद कर कितना सुख प्राप्त होता है…. ‘परोपकाराय पुण्याय’… यही तो कहा है महर्षि वेद्ब्यास ने…. देने का सुख भी अजीब है, वृक्ष फल देकर हलका महसूस करते हैं, अन्यथा उसके भार से दबा हुआ महसूस करते हैं, भार से डालें टूट जाती हैं. नदियों का प्रवाह ही उन्हें स्वच्छ रखता है. तालाब का पानी जल्द प्रदूषित हो जाता है. समुद्र में तरंगें उठती रहती है जो जल को गतिमान रखता है गति ही जीवन है… रुकने का नाम मौत है, चलना है जिंदगी. समय कभी नहीं रुकता लगातार चलता रहता है. सभी आकाशीय पिंड गतिमान है. ये गति ही उन्हें संतुलित बनाये रखता है. संतुलन जरूरी है. असंतुलन से ही अस्थिरता पैदा होती है. हमारी पृथ्वी का संतुलन लगातार बिगड़ रहा है. इसीलिए प्राकृतिक आपदा के शिकार हम बार-बार हो रहे हैं. प्रकृति संतुलन बनाना जानती है. हम पहाड़ काट कर घर बनाते हैं, पहाड़ों का क्षरण होता है, फलत: वे टूटते हैं, और घर को भी मटियामेट कर देते हैं. पहाड़ पर जाना हो तो जाइए. प्राकृतिक आनंद लीजिये पर वहां महल मत बनाइये. नदियों को बहने दीजिये बाँध बनाकर उसे प्रतिबंधित मत कीजिये. प्रकृति बंधन स्वीकार नहीं करती. हम अपनी आत्मा को बाँध कर नहीं रख सकते. एक दिन यह शरीर को छोड़ मुक्त हो जाती है.
बस यूं ही कुछ विचार मन में उठे उसे लिपिबद्ध कर पेश कर रहा हूँ.
-जवाहर

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