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एक प्रशासक का राजनीति में आना

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कांग्रेस नीत संप्रग सरकार के दो कार्यकाल अर्थात लगातार दस साल तक प्रधान मंत्री की कुर्शी सम्हालानेवाले डॉ. मनमोहन सिंह एक प्रशासक थे. वित्त मंत्री के रूप में उन्होंने कई आर्थिक सुधर करवाये, जो अनवरत जारी है. पर वे एक अच्छे राजनेता नहीं बन सके. कभी भी इलेक्शन यानी चुनाव नहीं लड़ा. हमेशा राज्य सभा के सदस्य के रूप में ही रहे. उनकी राजनीतिक नेतृत्व की अक्षमता का दंश आज कांग्रेस झेल रही है.
जसवंत सिंह भी योजना आयोग के उपाध्यक्ष के रूप में प्रशासनिक अधिकारी ही थे. भाजपा सरकार में वित्त मंत्री, गृह मंत्री और रक्षा मंत्रालय को भी सम्हाला पर गांधार और जिन्ना का जिन्न उन्हें ले डूबा. वैसे वे कठोर निर्णय लेनेवाले अधिकारी और नेता के रूप में पहचाने गए. पर राजनीतिक कौशल में पिछड़ गए और भाजपा से अलग होकर चुनाव हार गए.
यशवंत सिन्हा भी भारतीय प्रशासनिक सेवा में विभिन्न पदों से होते हुए रौल बैक वाले वित्त मंत्री के रूप में जाने जाते हैं. भाजपा में अब वे हाशिये पर हैं. उनके पुत्र जयंत सिन्हा वित्त राज्य मंत्री का कार्य भार सम्हाल रहे हैं. झाड़खंड के मुख्य मंत्री के दौड़ में इनका भी नाम लिया जा रहा था, पर पिछड़ गए वित्त मंत्रालय का ही कार्य-भार ठीक है. डॉ. अजय कुमार जमशेदपुर के तेज तर्रार और लोकप्रिय पुलिस अधीक्षक थे. पर राजनीतिक कारणों से त्याग पत्र देकर उद्योग घराने में भी अपनी प्रशासनिक सेवा का लाभ दिया. फिर वे झाड़खंड विकास मोर्चा के टिकट पर लोक सभा चुनाव जीता और अपने क्षेत्र का समुचित विकास भी किया, पर मोदी लहर में २०१४ में पुन: सांसद नहीं बन पाए. उन्हें काफी दुःख हुआ और ऊहापोह की स्थिति में कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर ली. इस बार उनको विधान सभा के लिए भी कांग्रेस ने टिकट नहीं दिया और थोड़े समय के लिए प्रवक्ता बना दिया. वह भी उस समय जब पाकिस्तानी जहाज भारतीय सीमा का अतिक्रमण कर रहा था और भारतीय कोस्ट गार्ड ने उसे विफल कर, स्वयं को ध्वस्त करने पर मजबूर कर दिया…. ऐसे समय में डॉ. अजय कुमार का कांग्रेस प्रवक्ता के रूप में, उनका बयान किसी को अच्छा न लगा. उनकी अच्छी-खासी फजीहत हो गयी.
इसके अलावा लोक सभा मीरा कुमार, कांग्रेस नेता अजित जोगी, पी एल पुनिया, पूर्व गृह सचिव आर के सिंह, सेवामुक्त जनरल वी के सिंह आदि आदि….अनेकों नाम है जो अच्छे प्रशासक तो जरूर रहे हैं, पर राजनेता के रूप बहुत अच्छा नहीं कर सके, ऐसा मेरा मानना है.
अरविन्द केजरीवाल भी अभी तक सफल राजनेता नहीं बन सके. अब उन्हें अपनी पुरानी मित्र और सहयोगी तेज-तर्रार पूर्व और पहली महिला आई. पी. एस. किरण बेदी से ही भिड़ना पड़ेगा. दोनों मैग्सेसे अवार्ड से सम्मानित, प्रशासनिक सेवा से त्यागपत्र देकर समाज सेवा के रास्ते, अन्ना आन्दोलन में साथ रहते हुए, अलग-अलग हो गए. केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी बनाकर, दिल्ली विधान सभा की २८ सीटें जीतकर धमाका कर दिया, वहीं किरण बेदी दूर खड़ी केजरीवाल को स्वाभाविक ईर्ष्याजनित भाव से देखती हुई, उनकी आलोचना करते-करते भाजपा और नरेंद्र मोदी के करीब आती चली गयी और अब भाजपा का दामन थामकर अरविन्द केजरीवाल को टक्कर देने के लिए मैदान में उतर चुकी है. दिल्ली की संभावित मुख्य मंत्री के रूप में अपनी प्राथमिकतायें भी तय करने लगी हैं. केजरीवाल के साथ दिल्ली की असहाय जनता है, तो किरण के साथ भाजपा के साथ-साथ उनका दिल्ली की पुलिस सेवाकाल का जुझाडू अनुभव. दोनों की छवि अभीतक ईमानदार और बेदाग है. ऐसे में दिल्ली की जनता के दोनों हाथ में लड्डू है. अगर आम आदमी पार्टी के बहुमत नंबर आते हैं तो केजरीवाल पूर्व निर्धारित मुख्य मंत्री होंगे, जबकि भाजपा के बहुमत के नंबर मिलने पर फैसला भाजपा के शीर्ष नेताओं पर निर्भर करेगा. वैसे यह मुकाबला बड़ा रोमांचक होनेवाला है. किरण बेदी के बाद शाजिया इल्मी भाजपा में योगदान दे चुकी हैं और बिनोद कुमार बिन्नी भी भाजपा में शामिल हो चुके हैं. ये सभी भाजपा के टिकट से अरविन्द केजरीवाल यानी आआप के खिलाफ चुनाव लड़कर भाजपा में अपना सुरक्षित भविष्य देख रहे हैं क्योंकि अभी देश में भाजपा की लहर है. किरण बेदी तो मोदी को सूर्य और अपने को सितारा मान चुकी हैं. अब वह अपनी किरण से किसको रोशन करती हैं और किसको वंचित रखती हैं वह तो उन्ही पर निर्भर करता है जैसा कि रविवार की चाय पार्टी में डॉ. हर्षवर्धन एक मिनट विलम्ब के कारण किरण की चाय से वंचित रह गए. बेचारे डॉ. हर्षवर्धन पिछली बार इसी तरह दिल्ली का मुख्या मंत्री बनते बनाते विपक्ष का नेता बनकर रह गए इस बार भी उन्हें चांस नहीं मिला किरण ही झटक रही हैं और अभी से इन स्थापित नेताओं को झटका मार रही है आगे का तो इनको रोशनी प्रदाता मोदी जी ही जानें.
कुमार बिस्वास सक्रिय राजनीति से बाहर हो गए हैं पर उनका नैतिक समर्थन आम आदमी पार्टी की तरफ है. वे अपनी कविता के बहाने किरण बेदी और शाजिया इल्मी पर निशाना साध रहे हैं. भाजपा के साथ पूरा ब्यावसायिक घराना, मीडिया, और अब तक के उनके क्रिया कलाप का प्रभाव है, जिसका प्रतिफल हरियाणा, महाराष्ट्र, झाड़खंड, जम्मू व कश्मीर के चुनाव परिणाम बता रहे हैं. उनके पास मोदी जैसी शक्शियत और अमित शाह जैसे चाणक्य हैं. बहुत सारे राजनीतिक पण्डित किरण बेदी को दिल्ली की भावी मुख्यमंत्री के रूप में देखने लगे हैं तो कुछ लोग भाजपा के अब तक के क्रिया कलाप पर ज्यादा संतुष्ट नजर नहीं लग रहे. अब यह तो १० फरवरी का चुनाव परिणाम ही बताएगा कि सत्ता किसके हाथ आती है, पर जीत तो दिल्ली की जनता की ही होगी क्योंकि सत्ता पक्ष और विपक्ष हर हाल में तगड़ा होगा.
वैसे भी चुनाव भी एक जंग की तरह है, जो कौशल से ही जीते जाते रहे हैं. श्री राम के साथ अगर विभीषण न ए होते तो रावण को मारना श्रीराम के लिए असान न होता. पांडवों के साथ श्रीकृष्ण की कूटनीति न होती तो धर्मराज युधिष्ठिर विजयी न होते. अज के युग में भी बहुत सरे युद्ध या कहें छद्मयुद्ध ही लड़े जाते रहे हैं. और कहते हैं न राजनीति, युद्ध और प्यार में सब जायज है. तो हमलोगों को इंतज़ार करना है १० फरवरी का. भारतीय लोकतंत्र की गहराई का और जनता के फैसले का, मोदी जी और अमित शाह की कूटनीति कौशलका, अरविन्द केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, योगेन्द्र यादव के ईमानदार प्रयास का.
महात्मा गाँधी ने अंग्रेजों से भारत को आजाद करवाया पर जीत तो नेहरु और जिन्ना की ही हुई थी. लोकनायक जयप्रकाश के आन्दोलन के बाद मोरारजी भाई और चौधरी चरण सिंह आमने सामने थे. अब अन्ना आन्दोलन के दो प्रमुख आमने सामने हैं. यही तो भारतीय लोकतंत्र की खासियत है. अटल बिहारी बाजपेयी ने भी कहा था मैं रहूँ या न रहूँ देश और देश का लोकतंत्र रहना चाहिए. राजनीति में उलटफेर होते रहते हैं. कभी जवाहर लाल नेहरु फिर इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी, वी. पी, सिंह, अटल बिहारी बाजपेयी, डॉ. मनमोहन सिंह और अब श्री नरेंद्र मोदी इसी भारतभूमि की उपज हैं. हमें गर्व करना चाहिए अपनी मातृभूमि पर जिसने एक से एक होनहार पूत पैदा किये हैं. जय हिन्द! जय भारत!

– जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर

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