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मोदी सरकार के एक साल

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एक साल पहले इकनॉमिक टाइम्स में चैतन्य कालबाग ने लिखा था कि देश के वोटरों के पास बेहतर चॉइस की कमी है। अब हम देख चुके हैं कि सत्ता संभालने के बाद पीएम नरेंद्र मोदी उम्मीदों, निराशा, उपलब्धियों और नाकामियों जैसे तमाम पहलुओं से रूबरू हो चुके हैं। लोगों को जब बदलाव का मौका दिया जाता है, तो वे इकट्ठे होकर इसका इस्तेमाल करते हैं। वे उम्मीद करते हैं कि उनकी जिंदगी नाटकीय रूप से बदलकर बेहतर हो जाएगी। उनके पास खर्च करने के लिए ज्यादा पैसे होंगे, उनकी सुरक्षा बेहतर होगी और सहूलियतें बढ़ेंगी। हर चुनाव उम्मीद की किरण होती है और वोटर इसमें छले जाने को तैयार होते हैं।
फिर कुछ ही दिनों में अहसास हो जाता है कि बदलाव नहीं होगा और अगर थोड़ा-बहुत होगा भी, तो उससे कुछ खास फर्क नहीं पड़ने वाला है। पिछले तीन दशक में पहली बार एक पार्टी के बहुमत वाली सरकार बनने के एक साल बाद कॉन्फिडेंस इंडेक्स के मामले में हम कहां हैं? काफी ज्यादा वक्त और एनर्जी गैर-जरूरी मसलों पर खर्च हो गए। मसलन, तंबाकू के सेवन और कैंसर से इसके लिंक, गोहत्या और बीफ पर पाबंदी जैसे मसलों को कुछ ज्यादा ही तवज्जो मिल रही है।
सभी भर्तियां पीएमओ ऑफिस में केंद्रित हो गई हैं और कई संस्थाएं बिना बॉस के चल रही हैं और इन्हें दुरुस्त करने के लिए सक्रियता नहीं नजर आती। पुरानी रिजीम के स्ट्रक्चर को खत्म करने पर ज्यादा जोर है। आजादी के बाद विकास के लिए गंवाए गए मौकों को लेकर जोर-जोर से अफसोस जताया जा रहा है।
हालांकि, क्या इस सरकार ने जल्द से जल्द काम शुरू करने के लिए मौके का इस्तेमाल किया? क्या भारत का बेहतर भविष्य बनाने के लिए सरकार ने सही दिशा में अगुवाई की? इसका जवाब नहीं है। दरअसल, रेवेन्यू संकट से जूझ रही सरकार ने सामाजिक क्षेत्र पर खर्च में कटौती की है। मोदी सरकार ने केंद्र सरकार की तरफ से प्रायोजित रूरल ड्रिंकिंग वॉटर प्रोग्राम से अपने हाथ खींच लिए हैं।
सरकार ने हेल्थ पर खर्च में 15 फीसदी की कटौती की। ग्रामीण विकास विभाग के बजट में 10 फीसदी की कमी की गई। महिला और बाल विकास मंत्रालय का बजट घटाकर आधा कर दिया गया है। फाइनैंस मिनिस्टर ने एजुकेशन बजट में 16 फीसदी की कटौती ऐेसे वक्त में की है, जब उनके इकनॉमिक एडवाइजर ने इकनॉमिक सर्वे में एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा कि स्कूलों में छात्रों की संख्या बढ़ने के बावजूद साक्षरता काफी कम है। मिसाल के तौर पर ग्रामीण बच्चों में पांचवीं क्लास के वैसे बच्चों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है, जो बमुश्किल से दूसरे दर्जे की किताब पढ़ सकते हैं। एक ऐसे देश के लिए इसका क्या मतलब है, जिसका मकसद संपूर्ण साक्षरता हासिल करना है।
2014 की लेबर ब्यूरो रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में स्किल्ड वर्कफोर्स की मौजूदा साइज 2 फीसदी है, जबकि साउथ कोरिया में 96 फीसदी स्किल्ड कर्मचारी हैं और जापान का यह आंकड़ा 80 फीसदी है। इकनॉमिक सर्वे में इस बात की संभावना काफी कम बताई गई है कि सरकार 2022 तक अतिरिक्त 12 करोड़ स्किल्ड वर्कर्स का टारगेट हासिल कर पाएगी। दूसरी तरफ, संघ परिवार से जुड़ी विश्व हिंदू परिषद हिंदुओं से ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करने की अपील कर रही है, ताकि हिंदुओं की आबादी तेजी से बढ़ सके। क्या आजादी के इतने साल बाद भी हमें देश के सभी नागरिकों के लिए रोटी, कपड़ा और मकान सुनिश्चित करने पर फोकस नहीं करना चाहिए?
हमारे यहां इन दिनों विकास का खूब डंका बज रहा है। सरकार इस बारे में दावे पर दावे कर रही है। अपनी पीठ ठोक लेना आसान है लेकिन असली सफलता तो तब कही जाएगी, जब दूसरे भी हमारा लोहा मानें। सच्चाई यह है कि सामाजिक विकास की अंतरराष्ट्रीय कसौटियों पर हम किसी गिनती में नहीं आते। अमेरिका के सामाजिक शोध संस्थान ‘सोशल प्रोग्रेस इंपरेटिव’ ने दुनिया के 133 देशों के सामाजिक विकास को बताने वाला जो ‘सोशल प्रोग्रेस इंडेक्स’ जारी किया है, उसमें भारत बेहद नीचे 101 वें स्थान पर है। यहां तक कि गरीब पड़ोसी देश बांग्लादेश और नेपाल भी हमसे बेहतर पोजिशन में हैं। नॉर्वे इस सूची में पहले और अमेरिका 16वें स्थान पर है। इस इंडेक्स के लिए सेहत, पानी, सैनिटेशन की सुविधा, सुरक्षा, सहिष्णुता, आजादी और मौकों की उपलब्धता के कुल 52 मानक तय किए गए हैं।
वर्ष 2013 से इस रेंटिंग की शुरुआत हुई। इसमें अलग-अलग मानकों के लिए अलग-अलग रेटिंग है। जैसे सहिष्णुता और समावेशन (इन्क्लूजन) में भारत की रैंक 128 वीं है, जबकि सेहत के मामले में 120 वीं। इस रेटिंग के मानकों को देखें तो साफ पता चलेगा कि जीडीपी, विकास दर या सैनिक साजो-सामान के आधार पर किसी देश को विकसित मान लेने की समझ कहीं न कहीं आंखों देखी हकीकत को झुठलाने का काम करती है। यह सिर्फ प्रभावशाली समूहों को देखती है, सामान्य नागरिकों को नहीं। सही मायने में कोई राष्ट्र विकसित तभी कहला सकता है जब उसके सभी नागरिकों को जीवन की बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध हों और ज्यादातर लोग अपनी जिंदगी से खुश हों। पर इसके लिए पर्याप्त आर्थिक संसाधन के अलावा एक सहज सामाजिक माहौल भी जरूरी है।
कहीं ऐसा न हो कि किसी समुदाय के प्रति फैली कटुता के कारण उसका जीना ही मुहाल हो जाए। इसमें दो मत नहीं कि पिछले कुछ वर्षों में भारत की अर्थव्यवस्था में मजबूती आई है। देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ी है। मध्यवर्ग का भी तेजी से विस्तार हुआ है। मैकिन्सी ग्लोबल इंस्टीट्यूट का आकलन है कि वर्ष 2025 तक लगभग 4 प्रतिशत भारतीय मध्यवर्ग भारत के कुल उपभोग का 20 फीसदी हिस्सा हड़प जाएगा। दूसरी तरफ गरीबों की हालत में कोई बदलाव नहीं होता दिख रहा। वे शिक्षा, स्वास्थ्य और दूसरी बुनियादी सुविधाओं से बहुत दूर हैं।
दरअसल एक किस्म की दोहरी व्यवस्था भारत में हर मामले में देखी जा सकती है। निजी क्षेत्र समाज के एक छोटे वर्ग को स्वास्थ्य से लेकर शिक्षा तक सारी सुविधाएं उपलब्ध करा रहा है। लेकिन एक बड़ी आबादी सरकार के भरोसे है, जिसके पास शिक्षा, स्वास्थ्य तथा दूसरे सामाजिक क्षेत्रों के लिए पर्याप्त बजट नहीं है। यही नहीं, इनके लिए जो तंत्र उसने खड़ा किया है, वह प्राय: अक्षम और भ्रष्ट है। इस तरह सोशल डिवेलपमेंट के नाम पर जो भी थोड़ा-बहुत सरकारी खजाने से निकल रहा है, वह रिश्वत के रूप में मध्यवर्ग के पास ही पहुंच रहा है। सरकार को अपनी सामाजिक जिम्मेदारी पर ध्यान देना होगा और अपने सिस्टम को चुस्त-दुरुस्त बनाना होगा। इसके बिना विकास के लंबे-चौड़े दावों का कोई अर्थ नहीं है।
प्रधान मंत्री की रैलियों, रुतबा, देश विदेश में प्रदर्शन और उसके सीधे प्रसारण में करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाये जा रहे हैं वहीं बेमौसम बरसात से जो रब्बी की फसलें बर्बाद हुई है किसान आत्महत्या करने को मजबूर हैं उन्हें कहीं कहीं दो सौ रुपये का चेक देकर आंसू पोंछने का स्वांग रचा जा रहा है.वहीं रब्बी फसलों के नुक्सान से जो खाद्यान्नों की कमी होनेवाली है उसकी भरपाई लिए आयात की कोई योजना अभी तक नहीं दिखलाई पड़ रही है. जब जमाखोर लोग दाम बढ़ा देंगे तब खामियाजा आम जन को ही भुगतना पड़ेगा और तब आयात नीति बनाई जाएगी और उसमे भी घपले नहीं होंगे, यह कौन तय करेगा. प्रधान मंत्री लोगों से सब्सिडी छोड़ने की अपील करते हैं, पर अपने साजो सामान में, विदेश भ्रमण में कहीं से भी कमी नहीं दिखाते. विदेशों में भारत को बढ़ा चढ़ा कर पेश कर उनसे उधार लेने की कोशिश की जा रही है. अपने देश में गरीबों के हित की सिर्फ बात होगी, धरातल पर कुछ होता दीखता नहीं. न तो रोजगार के अवसर पैदा हो रहे हैं न ही भूमि सुधार, न वैज्ञानिक खेती के लिए धरातल पर कुछ किया जा रहा है उलटे किसानों से उनकी जमीन हथियाने की साजिश हो रही है. बिजली के उत्पादनऔर वितरण में सुधार, सिंचाई ब्यवस्था में सुधार, ग्रामीण परिवेश में सुधार के के लिए क्या कदम उठाये गए, यह भी सरकार को बताना चाहिए, एक साल पूरा होनेवाला है(अभी एक महीना बाकी है) जनधन योजना की सफलता का डंका तो खूब पीटा जा रहा है, उससे गरीब जनों को क्या फायदा हुआ यह भी बताया जाना चाहिए. महंगाई तो कम होने से रही, कानून ब्यवस्था में भी कहीं कोई सुधार नहीं दीखता. दूर की बात छोड़िये दिल्ली में ही घटनाओं में कितनी बृद्धि हो रही है. महिला सुरक्षा के लिए क्या कदम उठाये गए? आज भी महिलाएं वैसे ही जुल्म की शिकार हो रही हैं. बाहुबलियों के साम्राज्य में कहीं कोई कमी नहीं आयी. साधारण महिला की बात कौन कहे मानव संसाधन विकास मंत्री भी सुरक्षित नहीं हैं और फेब इण्डिया का बचाव खुद गोवा के मुख्य मंत्री कर रहे हैं. वर्तमान भाजपा सरकार में मोदी जी के बाद किसी मंत्री की चर्चा अगर होती भी है, तो उनमे अरुण जेटली के बाद स्मृति ईरानी और अब जनरल वी के सिंह का नाम आया है.
मोदी जी, आपका चमत्कार अगर नहीं दिखा तो दिल्ली जैसे ही बिहार, बंगाल आदि के चुनावों में मुंह की खानी होगी. उम्मीद है आपको अंदाजा होगा ही. विदेशों में भारत की छवि बेहतर हुई है, अमरीका, फ्रांस, यूरोप और दूसरे देशों में स्थित प्रवासी भारतीय भी मेक इन इण्डिया के तहत निवेश करने को तैयार हैं पर माहौल भी तो सुधरना चाहिए. सकारात्मक निवेश कहीं हुआ है क्या. हर साल बढ़ते युवा बेरोजगारों के लिए रोजगार का सृजन हो रहा है क्या ? प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है. स्वच्छ भारत अभियान में क्या प्रगति दीख रही है. ट्रेनों में स्थिति बदली है क्या? सार्वजनिक स्थानों के रख रखाव में परिवर्तन दीखता है या सब नारों तक ही सीमित है. शौचालय बनाने के लिए विज्ञापन खूब दिखाए जा रहे हैं पर उनके घरों में जहाँ टी वी भी नहीं है, झुग्गी झोपड़ियों के लिए सार्वजनिक शौचालय बनाये जाने के कार्यक्रम में कितने प्रगति हुई है इन सबका आकलन और जवाबदेही तय होनी चाहिए.
विदेशों में जाकर मोदी जी अपनी ही पीठ खुद से बार बार ठोक रहे हैं. भारत की गरिमा जहाँ बढ़ रही है वहीं आत्मश्लाघा की प्रक्रिया वही पुराने अंदाज में जो कई बार उन्ही शब्दों में वे अन्य मंचों पर कह चुके हैं. परिणाम खुद दीखना चाहिए, जिसे जनता भी वाह वाह करे और दूसरे देश वाले भी. अब फ्रांस से विमान खरीदने वाली बात ही ले लीजिये, जिसे खुद उनके समर्थक और भाजपा के धुरंधर नेता सुब्रमण्यम स्वामी कोर्ट में जाने को कह रहे हैं. हर लम्हे को कैमरे में कैदकर मीडिया में बार बार दिखाना क्या है? एक समय आकाशवाणी और दूरदर्शन को इंदिरा दर्शन और राजीव दर्शन का नाम दिया गया था अभी क्या कहा जाय ? आम आदमी की कमर टूट रही है अच्छे दिन की आश में …महंगाई बेरोजगारी से निजात कब मिलेगी? नक्सलियों, आतंकवादियों, अलगाववादियों, की दहशत कब कम होगी? कब लोग चैन की सांस और नींद ले सकेंगे. माना कोई बड़ा भ्रष्टाचार सामने नहीं आया है, पर दफ्तरों में, थानों में क्या घूसखोरी बंद हो गयी है? इन सब पर फिर से मनन चिंतन और समाधान के लिए सोचना होगा.

जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर

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