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लोकतंत्र बचाओ अभियान

jls
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कुछ खबरे ज्यादा प्रकाश में आती हैं, अखबारों की हेड लाइन बनती हैं, टी वी चैनलों की ब्रेकिंग न्यूज़ बनती हैं, तो कुछ अखबारों के किसी कोने में सिसकती रहती हैं …। आज उसी पर चर्चा करेंगे। लातूर के सूखे को अगर टी वी पर प्रमुखता से न दिखाया जाता तो शायद रेल मंत्री उतने सक्रिय न होते। अब वे इतने सक्रिय हो गए हैं कि खाली वैगन लेकर महोबा पहुँच गए । वहां की सरकार के पास खाली या भरे वैगनों के पानी रखने की जगह ही नहीं है। उन्हें तो केंद्र सरकार से पैसे चाहिए ताकि वे पानी रखने के कंटेनर खरीद सकें, सूखे से निपट सकें। तब वे केंद्र सरकार के पानी को स्वीकार करेंगे। बड़े लोगों की बड़ी बात !
सरकार और नागरिक का रिश्ता बड़ा ही नाज़ुक होता है। विश्वास का भी होता है और अविश्वास का भी। समर्थन का भी होता है और विरोध का भी। लोकतंत्र में मतदान करना और चुनाव के बाद सरकार बना लेने भर से एक नागरिक का लोकतांत्रिक कर्तव्य समाप्त नहीं हो जाता है। उसका असली संघर्ष सरकार बनने के बाद शुरू होता है जब वह अपनी मांगों को लेकर सरकार के सामने अपनी दावेदारी करता है। कई प्रदर्शन इस आस में समाप्त हो जाते हैं कि काश कोई पत्रकार आएगा और हमारी तस्वीर दिखाएगा। कई प्रदर्शन इस बात की चिन्ता ही नहीं करते हैं। उन्हें पता है कि जब वे प्रदर्शन करेंगे तो कैमरे वाले आएंगे ही आएंगे। कांग्रेस और बीजेपी के प्रदर्शनों को बाकी प्रदर्शनों से ज्यादा सौभाग्य प्राप्त है।
शुक्रवार ६ मई को भाजपा सांसद संसद परिसर के भीतर बनी गांधी प्रतिमा के सामने प्रदर्शन कर रहे थे। मांग कर रहे थे कि इटली की अदालत में जिन लोगों ने पैसा खाया, देश की जनता जानना चाहती है कि घूस किसने ली है। भाजपा की सरकार है फिर भी वे प्रदर्शन कर रहे हैं। संसद में अगुस्ता मामले पर बहस हो रही है और बीजेपी के सांसद बाहर धरने पर बैठे हैं। उधर जंतर मंतर पर कांग्रेस लोकतंत्र बचाओ प्रदर्शन कर रही थी। कांग्रेस के प्रदर्शन में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी आए। कम से कम एक ईमानदार चेहरा तो होना ही चाहिए। बेचारे की उम्र हो गयी है। पुलिस उन्हें भी धकिया रही थी और सोनिया गाँधी उन्हें धक्के से बचा रही थी। उधर सांसद में ज्योतिरादित्य सिंधिया सोनिया जी को शेरनी की उपाधि से सुशोभित कर रहे थे ।
जंतर मंतर का प्रदर्शन चैनलों पर खूब लाइव दिखाया गया। कांग्रेस के नेता मंच से बोल रहे थे कि देश में लोकतंत्र का गला घोंटा जा रहा है। संस्थाओं पर संघ का कब्ज़ा हो रहा है। सोनिया गांधी से लेकर सभी नेताओं ने अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाए जाने को लेकर मोदी सरकार की आलोचना की। सोनिया गांधी ने कहा कि वे किसी से डरने वाली नहीं हैं। मनमोहन सिंह ने कहा कि मैं मोदी सरकार से कहना चाहता हूं कि कांग्रेस बहती गंगा की तरह है। आप चाहे इसे बदनाम कीजिए या कुछ कीजिए यह अपना रास्ता नहीं बदलेगी। गंगा के रूपक ने भी बीजेपी को मौका दे दिया। रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने जवाब दे दिया कि आप क्यों चिन्तित हैं। मैंने तो किसी का नाम नहीं लिया। आप ही जानते होंगे कि गंगा कहां जा रही है। त्यागी और खेतान तो छोटे लोग हैं जिन्होंने बस बहती गंगा में हाथ धोया है। लोकसभा चुनावों के दौरान प्रधानमंत्री मोदी गंगा को लेकर भावुक होते थे, चुनाव हारने के बाद मनमोहन सिंह गंगा को लेकर भावुक हुए। उत्तराखंड को लेकर कांग्रेस का यह प्रदर्शन था तो बीजेपी का अगुस्ता वेस्टलैंड को लेकर। बीजेपी कांग्रेस के समय में लगे आपातकाल से लेकर राष्ट्रपति शासनों की याद दिलाने लगी। इसी बीच सुप्रीम कोर्ट से फैसला आया कि दस मई को दो घंटे के लिए राष्ट्रपति शासन हटेगा और उत्तराखंड की विधानसभा में हरीश रावत को अपना बहुमत साबित करना होगा। बहुमत की प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में होगी। 9 बागी विधायक विश्वास मत में हिस्सा नहीं ले सकेंगे। इससे कांग्रेस उत्साहित हो गई। हालाँकि अभी भी इस मामले में हाई कोर्ट का फैसला ९ मई सोमवार को आना है और मंगलवार को शक्ति परीक्षण है। कांग्रेस और बीजेपी ने फैसले का स्वागत किया । दोनों की अपनी अपनी रणनीति होगी।
इन प्रदर्शनों से मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को भी कुछ कहने का मौका मिल गया। पहली बार की सरकार में जब मुख्यमंत्री रहते हुए केजरीवाल धरने पर बैठे थे, तब काफी आलोचना हुई थी और मजाक भी उड़ा था कि कहीं सीएम भी धरने पर बैठता है। कांग्रेस, बीजेपी के धरना प्रदर्शन से केजरीवाल को मौका मिला। कहने लगे- बीजेपी और कांग्रेस दोनों धरना पार्टी हैं। आज बीजेपी अपने ही खिलाफ धरने पर है। सिर्फ आप है जो गर्वेनंस पर खरे उतर रही है। लेकिन इतने पर संतोष कहाँ हुआ? आम आदमी पार्टी भी शनिवार को प्रदर्शन करने लगी । धरना-प्रदर्शन से पता चलता है कि हमारा लोकतंत्र कितना जीवंत है।
जंतर मंतर पर गुरुवार(५ मई २०१६) को आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं ने प्रदर्शन किया था। मगर इनका लाइव कवरेज नहीं हुआ। दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, यूपी, राजस्थान से सैकड़ों आंगनवाड़ी वर्कर आईं थीं। इनकी मांग है आंगनवाड़ी वर्करों को स्थाई किया जाए और सरकारी कर्मचारी का दर्जा मिले। वर्कर को 24 हजार का वेतन मिले और हेल्पर को 18 हजार महीना। शुक्रवार को भी आईटीओ पर दिल्ली के आंगनवाड़ी वर्करों ने प्रदर्शन किया। पता चला कि पिछले चालीस साल से देश भर में आंगनवाड़ी महिलाएं अपनी मांगों को लेकर धरना प्रदर्शन कर रही हैं। राज्यों की राजधानी में धरना होता है। दिल्ली आकर भी धरना होता है। समाज व बाल कल्याण मंत्री को ज्ञापन दिया जाता है और उसके बाद फिर अगले प्रदर्शन की तैयारी शुरू हो जाती है। आंगनवाड़ी भारत ही नहीं, दुनिया का एक बड़ा सामाजिक कार्यक्रम है। आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं की कमाई 3000 रुपया मात्र महीने का है। अलग-अलग राज्यों में अलग अलग वेतन हैं, अलग-अलग शर्तें हैं। केरल में दस हजार वेतन मिलता है तो कई राज्यों में न्यूनतम मजदूरी से भी कम 3000 रुपये। देश भर में आंगनवाड़ी के 14 लाख केंद्र हैं और 27 लाख वर्कर हैं। आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को सामाजिक कल्याण विभाग इंटरव्यू के बाद अस्थाई तौर पर नियुक्ति करता है। वर्कर के लिए 12 वीं पास होना जरूरी है। सभी महिलाएं होती हैं। बच्चों को टीके लगाना, खाना खिलाना, महिलाओं को पोषक तत्वों की जानकारी देना, यह सब इनका काम है। चालीस साल तक प्रदर्शन करें तो उनका साथ देना चाहिए और उस साधना के मर्म को समझना चाहिए। दिक्कत यह है कि जब तक मामला भावुक नहीं होता, उसमें राष्ट्रवाद या देशभक्ति के नाम पर या कांग्रेस बनाम बीजेपी के नाम पर कुतर्क करने की संभावना नहीं होती मीडिया, सरकार, समाज प्रदर्शनों को कमतर निगाह से देखते हैं।
अब देखिए फरवरी और मार्च महीने में जेएनयू को लेकर कितना हंगामा हुआ। आज उसी जेएनयू में उसी आंदोलन का अगला चरण चल रहा है। कई दिनों से लेफ्ट और एबीवीपी के छात्र अनशन पर बैठे हैं मगर कोई सुनवाई नहीं। छात्रों की हालत भी बिगड़ रही है। तब भी कोई हलचल नहीं। भारत विरोध के नारे सुनाई पड़ते हैं, अनशन का पता भी नहीं चलता जेएनयू में छात्रों के अनशन के मुद्दे पर शाम में लेफ्ट, कांग्रेस और जेडीयू के नेता राष्ट्रपति से मिले। इन्होंने राष्ट्रपति से अपील की कि इस मामले में दखल दें। सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी ने कहा कि कन्हैया कुमार एम्स में हैं, बाकी छात्रों की हालत भी बिगड़ रही है, इसलिए राष्ट्रपति को दखल देना चाहिए। उन्होंने कहा कि जो मामला कोर्ट में है उस पर इस तरह यूनिवर्सिटी का फैसला ठीक नहीं है। कांग्रेस का भी कहना है कि कन्हैया पर कोई भी आरोप साबित नहीं हुआ है।
आशा कार्यकर्ता का भी लगभग वही हाल है। ये प्राइमरी स्वास्थ्य केंद्रों तक गर्भवती महिलाओं को पहुंचाने का कार्य करती हैं। हर बार चेकअप के लिए ले जाना ताकि गर्भवती महिला और बच्चे की सही देखरेख हो सके। हमारे देश में जन्म से पहले, जन्म के दौरान और जन्म के बाद बच्चों के मरने की संख्या काफी ज्यादा है। जाहिर है आशा वर्कर की भूमिका काफी महत्वपूर्ण है। नाम आशा है मगर इनकी निराशा को कोई नहीं समझने वाला। शुक्रवार को यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव फिरोजाबाद पहुंचे तो आशा वर्कर मुर्दाबाद करने पहुंच गईं। पुलिस लाइन में मुख्यमंत्री करोड़ों की योजनाओं का लोकार्पण कर रहे थे तभी 100 आशा महिलाएं पहुंच गईं। सिस्टम के प्रति आशा की भी हद होती है। वहां पानी नहीं मिला तो कई आशा महिलाएं बेहोश हो गईं। इनकी मांग थी कि गांव-गांव जाकर महिलाओं को प्रसव के लिए जिला अस्पताल तक लाती हैं। इसके लिए सौ रुपये प्रतिदिन मिलते हैं। बार-बार आश्वासन दिया गया कि स्थाई किया जाएगा, मगर अभी तक अस्थाई नौकरी पर हैं। भत्ता बढ़ाने की मांग भी पूरी नहीं होती। किसी राज्य में इन्हें पांच सौ रुपये प्रति दिन मिलते हैं तो किसी राज्य में तीन सौ भी। मेघालय में 1000 रुपया प्रतिदिन मिल रहा है।
तात्पर्य यही है कि आँगनबाड़ी से लेकर आशा कार्यकर्ता, पारा शिक्षक और पारा मेडिकल स्टाफ की भी अपनी-अपनी समस्याएं हैं, सुनता है कौन? जब तक कि ये लोग भी वोट बैंक नहीं बन जाते ।
– जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर

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