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दलित चेतना और राजनीति

jls
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ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी।
पूजिए विप्र शील गुण हीना, शूद्र न गुण गन ज्ञान प्रवीना।

उपर्युक्त दोनों बातें तुलसीदास कृत रामचरितमानस में कही गयी है।
तदनुसार आज भी शूद्रों, दलितों, निम्न जाति के लोगों के साथ भेद-भाव होता रहा है। इनके रहने का इलाका गाँव या शहर से बाहर होता है। ये ज्यादातर मजदूरी और छोटे-मोटे काम- जैसे जानवरों की खाल उतारना, या उनके शवों को ठिकाने लगाने आदि का काम करते हैं। जूते सिलाई करने का काम भी यही लोग करते हैं जिन्हें चमार जाति कहा जाता है। कुछ दलित वर्ग जिनमे वाल्मीकि समाज प्रमुख है, आज भी मैला ढोने अथवा सफाई करने का काम करते हैं। कुछ जातियां जिनमे डोम प्रमुख हैं, मुर्दे को अग्नि संस्कार करने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं. और भी बहुत सारी दलित जातियां हैं, जिनके साथ सामाजिक भेद-भाव होता रहा है। बाबा भीम राव अम्बेडकर भी दलित जाति के थे। उन्हें भी सवर्णों का तिरस्कार झेलना पड़ा था और अंत में हिन्दू धर्म की इस विद्रूपता से तंग आकर उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था। तिरस्कृत होते हुए भी इन्होने विदेश में पढाई कर उच्च शिक्षा प्राप्त किया और भारतीय संविधान के निर्माता बने। इन्होने ही सामाजिक रूप से पिछड़े जातियों के लिए आरक्षण की ब्यवस्था की जो आज भी लागू है। समय-समय पर इसमें संशोधन की बात उठती रही है, पर साथ ही साथ इनके साथ अन्याय भी होता रहा है। तभी तो सवर्ण और दलित में भेद-भाव बना हुआ ह। बीच-बीच में इसमें हवा दी जाती रही है और दोनों वर्गों के बीच मिटती दूरी को फिर से बढ़ाने का भी उपक्रम होता रहा है।
जगजीवन राम कांग्रेस के बड़े नेता थे। वे दलित जाति से आते थे। कहा जाता है वे काशी में किसी में मंदिर में गए थे तो उस मंदिर को गंगाजल से धोया गया। अभी हाल ही में जीतन राम मांझी ने भी अपने बारे में ऐसा ही कहा था। मतलब कुछ लोग आज भी भेदभाव जारी रक्खे हुए हैं। हैदराबाद में रोहित वेमुला का केस और गुजरात में ऊना का मामला भी सुर्ख़ियों में रहा। राजनीति हो रही है पर मौका तो आपने ही दिया है अर्थात सवर्ण हिन्दुओं ने उन्हें अलग नजरिये से देखा है। आज भी कहीं-कहीं इन्हें मंदिरों में प्रवेश नहीं करने दिया जाता। इन सबको इनके नेता भुनाते हैं और कुछ नए नारे गढ़ लिए जाते हैं, जैसे तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार। यानी खाई को चौड़ी करने की प्रक्रिया। भोले भले दलित इनके पीछे पीछे चल पड़ते हैं और बन जाते हैं किसी खास पार्टी के वोट बैंक। हालाँकि अभी सभी पार्टियां इन्हें अपने तरफ आकर्षित करने में लगी हुई है।
ऐसा भी बिलकुल नहीं कहा जा सकता कि इनकी स्थिति में सुधार नहीं हुआ है। हुआ है पर अभी बहुत कुछ करना बाकी है। पर शायद हमारे नेता जिनकी राजनीति इन्ही से चलती है, पूरा प्रयास नहीं करते। आधुनिक समय में इसके कई नेता पैदा हो गए जिनमे कांशीराम, मायावती, उदित राज, रामविलास पासवान, जीतन राम मांझी, लालू यादव आदि प्रमुख हैं। इनलोगों की राजनीति इन्ही के बलबूते चलती है और इनके ही कन्धों पर सवार होकर ये सत्तासुख भोगते हैं।

वैसे तो कहते हैं, यह शरीर भी चार वर्णों में बंटा है सिर यानी दिमाग मस्तिष्क, ब्रहमन है तो भुजाएं क्षत्रिय। कंधे से लेकर कमर तक वैश्य है तो कमर के नीचे का हिस्सा शूद्र है। फिर क्या बिना पैरों के हम खड़े हो सकते हैं? अर्थात शरीर के हर हिस्से का अपना अलग महत्व है। उसी प्रकार समाज के विभिन्न वर्गों का अपना अलग महत्व है। इसलिए इसे अलग-थलग नहीं किया जा सकता। समरसता, समभाव, समुचित भागीदारी जरूरी है तभी बनेगा सम्पूर्ण समृद्ध भारत!
दलित अस्मिता और सशक्तीकरण के इस प्रश्न को भारतीय सामूहिक मनोविज्ञान की पैनी नजर से देखने-समझने की जरूरत है। अक्सर हम समाजशास्त्रीय या राजनीतिक नजरिए से अत्यधिक प्रभावित रहते हैं और आम भारतीय के मनोविज्ञान को नजरंदाज करते हैं। यह एक अपराध है। इसके मूल में अन्य विचारधाराओं का षड्यंत्र भी काम करता रहा है।
जो विचारधाराएं धर्म की सत्ता और आस्तिकता की शक्ति को समाप्त करके किसी तरह का काल्पनिक यूटोपिया लाने की तैयारी में हैं, उन्होंने पूरे दलित आंदोलन को गलत ढंग से इस्तेमाल किया है। उन्होंने पूरे दलित समाज में नास्तिकता फैलाने और अपने-अपने सांस्कृतिक मूल्यों से घृणा सिखाने, अपने राजनीतिक लाभ के लिए भोलेभाले दलितों को उनकी संस्कृति और विरासत से दूर करने का कार्य किया है। वह दलित समाज को कमजोर करने का ही एक षड्यंत्र है।
इससे बहुत तरह के नुकसान हुए हैं। दलित सशक्तीकरण की संभावना पर कुठाराघात हुआ है। साम्यवादी और समाजवादी राजनीतिक दीवानों ने दलित समाज में क्रांति की जैसी इबारत लिखी है वह दलितों को और अधिक कमजोर और दिशाहीन करती जा रही है। एक राजनीतिक शक्ति, जो दलितों के संगठन से पैदा हुई है, उसकी आंखें और कान इन नास्तिकतावादी आंदोलनकारियों और लोकलुभावन राजनेताओं ने बहुत पहले नोंच लिए।
ऐसा मानने के कुछ आधारभूत कारण हैं। उन्हें भारत में घटित हुए अन्य सामाजिक आंदोलनों की सफलता या विफलता की तुलना करके समझा जा सकता है। इसके लिए भारत में धर्म और परंपरा की शक्ति को समझने का रुझान चाहिए, जो कि अक्सर उच्च शिक्षित वर्ग में नहीं होता। विशेष रूप से वह वर्ग, जो समाज विज्ञान की पढ़ाई करता है। उसमें तो धर्म और परंपरा के प्रति निंदा का भाव इतने गहरे बैठ जाता है कि वह इसका कोई सकारात्मक उपयोग देख ही नहीं पाता। उसके लिए परंपरा या धर्म का मतलब एक लाइलाज बीमारी की तरह होता है।
मगर वे भूल जाते हैं कि वे भारत में बैठे हैं और जिस समाज को विकसित करना चाहते हैं वह मौलिक रूप से धर्म और परंपराओं में जीने वाला समाज है। आज तक इतने दशकों या पूरी एक शताब्दी में भी धर्म की पकड़ न तो सवर्ण समाज में कम हुई है, न ही दलित समाज में। कोई भी सामजिक कार्य, जैसे, जन्म से लेकर, शादी समारोह और अंतिम संस्कार तक में सभी जातियों की भागीदारी बनी हुई है.यही है हमारे समाज का वास्तविक रूप.
दलित राजनीति में शक्ति संचय एक सफलता अवश्य है, पर उसकी कोई दिशा नहीं है। साम्यवादी या समाजवादी क्रांति की शैली से प्रभावित सिद्धांतकारों ने दलित राजनीति को शक्तिशाली बनाने में अवश्य सकारात्मक भूमिका निभाई है, पर उसका बार-बार दुरुपयोग भी किया है। यह दुरुपयोग वैसा ही है जैसा मुसलिम वोट बैंक के साथ होता आया है। खुद दलित नेताओं में एक व्यापक दिशाहीनता बनी हुई है।
यह पूरे भारतीय इतिहास में एक षड्यंत्र की तरह फैला हुआ है और इसके परिणाम हर काल में एक जैसे रहे हैं। जब भी दलित और वंचित समाज अपने सांस्कृतिक मूल्यों को विकसित करने की दिशा में आगे बढ़ता है, राजनीतिक शक्ति के उपासक इसे शक्ति के गणित में उपयोग करके नष्ट करते रहे हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि एक अंधी और बहरी राजनीतिक शक्ति का ज्वार तो पैदा हो गया है, लेकिन आंख और कान वाली दलित संस्कृति का विकास नहीं हो पाया है।
जब तक दलित समाज अपने पूर्वजों, संतों और अपनी विरासत पर गर्व करना नहीं सीखता तब तक उसका वर्तमान और भविष्य खुद उसकी नजरों में निंदित रहेंगे। दूसरी जातियों और समाज का उनके बारे में क्या मत है, वह भी दलितों की इस आत्महीनता की भावना से उपजता है। अगर दलित समाज और व्यक्ति खुद को असंस्कृत, असभ्य और पिछड़ा मानता है तो सवर्ण समाज भी उसकी आंखों में इस हीनभावना को पढ़ कर उसी भाषा में उत्तर देने लगता है। यही एक अर्थ में पूरे दलित समाज के पतन और दलन का मूल कारण है।
इतिहास साक्षी है कि शत्रु के शौर्य-कौशल से नहीं, बल्कि हितैषियों की मूर्खता से सभी साम्राज्य ढहाए गए हैं। और यह मूर्खता अगर षड्यंत्रपूर्वक पैदा की गई हो तब तो इससे जितनी जल्दी बच निकलें उतना ही श्रेयस्कर है। इसीलिए आज के समय में हमारे सामने चल रहे राजनीतिक षड्यंत्रों से बच कर दलित समाज के सांस्कृतिक पुनर्गठन की आवश्यकता है। सभी दलित जातियों में संतों का एक विराट साहित्य है, जिसे प्राचीन और मध्यकालीन इतिहास से सीधे उठाया जा सकता है। उसमें संतुलित और सदाचारी जीवन के सूत्र बहुत विस्तार से समझाए गए हैं। ज्ञान प्राप्त करने और हलाल की कमाई से परिवार का पोषण करने सहित बच्चों और औरतों का न्यायपूर्ण पालन-पोषण करने की बातें समझाई गई हैं। अंधविश्वासों को तोड़ने और कुरीतियों से लड़ने की सीख हर संत के साहित्य में बहुत सरल भाषा में दी गई है। इन संतों को एक माला में पिरो दिया जाए तो भारतीय दलितों के सांस्कृतिक एकीकरण का प्रश्न बहुत आसानी से हल हो सकता है। उनमें शिक्षा और सदाचार को आसानी से स्थापित किया जा सकता है। इसी क्रम में एक सबल संस्कृति के निर्माण का लक्ष्य भी हासिल किया जा सकता है। फिर दलित वोट बैंक को मुसलिम वोट बैंक की तरह खिलौना बनाने से भी बचाया जा सकता है।
गुजरात के ऊना में दलितों पर तथाकथित गौरक्षकों द्वारा जुल्म, आनंदी बेन पटेल का इस्तीफ़ा, और अब प्रधान मंत्री द्वारा ८०% गौरक्षकों को फर्जी बताना …. यह भी दलितों को साधने की युक्ति कही जा सकती है। प्रधान मंत्री अपने आपको भी पिछड़ा कहने से नहीं हिचकते वरन अपनी शक्ति को दुनिया के सामने साबित कर रहे हैं … अर्थात जरूरत है एक वृहत सोच की, शिक्षा के समुचित विकास की और आपसी सौहार्द्र विकसित करने के लिए हर सम्भव प्रयास करते रहने की। यह प्रयास राजनीतिक के साथ-साथ सामाजिक स्तर पर भी किये जाने की जरूरत है। एक असहाय बच्चे को गोद में उठाने के लिए माता को झुकना पड़ता है। यही काम समृद्ध और सवर्ण लोग कर सकते हैं। घृणा के वातावरण से समाधान नहीं निकलने वाला। बल्कि नुक्सान पूरे समाज का होगा। जय भारत! जय हिन्द!
– जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर.

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