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रीता ‘बहुगुणा’ का भाजपा में आना

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उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक ‘बड़े उलटफेर’ के तहत कांग्रेस की पूर्व प्रदेशाध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी गुरुवार को भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) में शामिल हो गईं, जिसे कुछ ही महीने में होने जा रहे विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस के लिए बड़ा झटका माना जा रहा है.
प्रदेश की राजनीति में 67-वर्षीय रीता बहुगुणा जोशी का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं रहा है. इतिहास में स्नातकोत्तर तथा पीएचडी की उपाधियां अर्जित करने वाली रीता राज्य के दिवंगत दिग्गज राजनेता हेमवतीनंदन बहुगुणा की पुत्री हैं, और उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रह चुके विजय बहुगुणा की बहन हैं. इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में मध्यकालीन तथा आधुनिक इतिहास की प्रोफेसर रहीं रीता वर्ष 1995 से 2000 तक इलाहाबाद की महापौर (मेयर) भी रही हैं.
वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में लखनऊ कैंट विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस की टिकट पर जीतीं रीता ने गुरुवार को ही विधायक पद से इस्तीफा देने की घोषणा की है. वह कांग्रेस की दिग्गज नेताओं में शुमार की जाती रही हैं, और वर्ष 2007 से 2012 तक पार्टी की प्रदेश इकाई की अध्यक्ष भी रहीं. इसके अलावा रीता वर्ष 2003 से अखिल भारतीय महिला कांग्रेस की अध्यक्ष भी रही हैं.
ब्राह्मणों में अच्छी पकड़ रखने वाली रीता बहुगुणा जोशी राष्ट्रीय महिला परिषद की उपाध्यक्ष भी रह चुकी हैं, और उन्हें संयुक्त राष्ट्र की ओर से ‘दक्षिण एशिया की सर्वाधिक प्रतिष्ठित महिलाओं’ में शुमार भी किया गया था.
बीजेपी में शामिल होने के कारण गिनाते हुए गुरुवार को रीता बहुगुणा जोशी ने कहा कि उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के सब कुछ संभालने के वक्त तक कोई परेशानी नहीं थी, लेकिन कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के आगे आ जाने के बाद से कांग्रेस में कुछ भी ठीक नहीं चल रहा है. बीजेपी ने भी उन्हें पार्टी में शामिल कर ब्राह्मण मतदाताओं को रिझाने की कोशिश की है, जबकि पिछड़े मतदाताओं पर पकड़ बनाने के उद्देश्य से उन्होंने केशवप्रसाद मौर्य को पार्टी की प्रदेश इकाई का कार्यभार सौंपा था. अब यह तो समय ही बतलायेगा कि रीता बहुगुणा को भाजपा में आने पर भाजपा को कितना गुना फायदा हुआ. हाँ, कांग्रेस का नुकसान तो अवश्य कर गयीं.
वैसे, 22 जुलाई, 1949 को उत्तराखंड में जन्मीं रीता बहुगुणा जोशी भी अन्य राजनेताओं की तरह ‘गिरफ्तारियों’ से दूर नहीं रही हैं. वह वर्ष 2011 में भट्टा पारसौल से कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की गिरफ्तारी के समय उन्हीं के साथ गिरफ्तार की गई थीं. उसके अलावा एक बार उन्हें वर्ष 2009 में भी गिरफ्तार किया गया था, जब उन पर बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) प्रमुख मायावती के खिलाफ अभद्र टिप्पणी करने का आरोप लगा था.
इस एपीसोड का विश्ले0षण यही बता रहा है कि राजनीतिक प्रवृत्ति वाकई क्षणभंगुर हो चली है यानी राजनीति में कोई भी बात एक-दो दिन से ज्यादा टिक ही नहीं पा रही. फिर भी ऐसी बातें जनमानस के अर्धचेतन में या अवचेतन में जरूर चली जाती हैं. इसीलिए पत्रकारिता खबर लायक हर घटना का आगा-पीछा जरूर देखती और दिखाती है.
आमतौर पर जब कोई नेता एक पार्टी छोड़कर दूसरी में जाता है तो अपने फैसले के औचित्य का प्रचार करने के लिए कुछ पहले से पेशबंदी करने लगता है. यहां जोशी की तरफ से यह पहल नहीं दिखाई दी. हालांकि मीडिया में इसकी चर्चा जरूर करवाई गई. लेकिन उससे ज्यादा हलचल मच नहीं रही थी. इसका एक कारण यह हो सकता है कि जोशी जिस पार्टी में थीं उसमें भारी बदलाव के कारण वहां उनकी कोई हैसियत बची नहीं थी. इस बात के लक्षण बीजेपी ज्वा इन करने के अवसर पर प्रेस कॉन्फ्रेंस में कही उनकी बात में भी साफ दिखे. कांग्रेस के अनुसार रीता बहुगुणा दगाबाज है और उनके जाने से कांग्रेस कोई फर्क नहीं पड़ेगा. वैसे कांग्रेस को अब क्या फर्क पड़नेवाला है. यह तो अब डूबती जहाज का नाम है जबतक कि कोई करिश्माई नेता कांग्रेस में नहीं आ जाता या कांग्रेस का कमान नहीं सम्हालता.
पहली बात तो यह कि कांग्रेस में उसके चुनाव प्रबंधक प्रशांत किशोर का रवैया प्रबंधक से ज्यादा निदेशक जैसा है और प्रशांत किशोर की हैसियत नेताओं से बड़ी हो गई. दूसरी बात में उन्होंने सीधे ही कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी पर निशाना साध दिया. पहली बात का विश्लेषण इस तरह हो सकता है कि प्रशांत किशोर को लाया ही इसलिए गया है क्योंकि यूपी में पिछले 27 साल से प्रदेश का कोई नेता कांग्रेस को वापस सत्ता में ला नहीं पा रहा था. इन नेताओं में खुद रीता बहुगुणा जोशी को भी कांग्रेस ने लंबे वक्त तक शीर्ष स्तर के पदों पर रखा था.
दूसरी बात के विश्लेषण की तो पिछले एक महीने में राहुल गांधी के किसान रथ ने प्रदेश में कांग्रेस की हलचल मचा रखी थी. कांग्रेस को बढ़ने से रोकने यानी राहुल गांधी को रोकने के तौर पर जोशी के मुंह से ऐसा कहलाने से ज्यादा कारगर उपाय और क्या हो सकता था. ये उपाय कितना छोटा बड़ा है? इस समय यह बात करना ठीक नहीं है. कम से कम राजनीतिक खेल में बची-खुची नैतिकता के लिहाज से तो बिल्कुल भी ठीक नहीं है.
बात सही हो या न हो, लेकिन युद्ध और प्रेम में सब जायज़ का मुहावरा खूब चलाया जाता है. और जब से राजनीति को युद्ध बताया जाने लगा तबसे हम यह भूलने लगे कि राजनीति में एक पद ‘नीति’ या ‘नैतिक’ भी है. लिहाजा ये बातें अब सुनने तक में ज्यादा आकर्षक नहीं बचीं. फिर भी अगर यह मानकर चलें कि अच्छी या बुरी प्रवृत्तियां हमेशा हमेशा के लिए खत्म नहीं होतीं. पृथ्वीवासियों के पास कम से कम ढाई हजार साल का व्यवस्थित राजनीतिक इतिहास का अनुभव है. इस विपत्ति काल में न सही, आगे कभी न कभी राजनैतिक निष्ठा या आदर्श या मूल्यों की बातें हमें करनी ही पड़ेंगी.
समाज के मनोरंजनप्रिय तबके के लोग हमेशा ही रोचक घटनाओं के इंतजार में रहते हैं. मानव समाज का बहुत बड़ा यह तबका इसीलिए अखबारों और टीवी कार्यक्रमों का बेसब्री से इंतजार करता है. अनुमान है कि आने वाले दिनों में जब रीता बहुगुणा जोशी कांग्रेस के खिलाफ प्रचार कर रही होंगी तब लोग उनके मुंह से अपनी वर्तमान पार्टी के खिलाफ कही बातों को याद करके मनोरंजक स्थिति का अनुभव कर रहे होंगे. हालांकि उन्हें जवाब देने की जरूरत पड़ेगी नहीं.
राजनीतिक विश्लेषक अपना अपना विश्लेषण प्रस्तुत करेंगे ही, पर मेरी राय में न तो रीता बहुगुणा को कोई बड़ा पद मिलनेवाला है न ही भाजपा को कोई बहुत फायदा होनेवाला है. भाजपा को अगर कुछ फायदा होगा तो मोदी जी के वक्तव्य और अब तक कियर गए क्रिया कलाप से ही होगा. कोई अन्य पार्टी के गैर मौजूदगी की वजह से भाजपा फायदे में जरूर रहने वाली है क्योंकि मुलायम सिंह के घर में मची हलचल को भी लोग बड़ी उत्सुकता से देख रहे हैं. मुलायम अखिलेश और उनके चाचा की आपसी खींच तान से सपा को भारी नुकसान होने वाला है. राज्य की कानून ब्यवस्था से अखिलेश ठीक से नहीं निपट सके हैं. अब ऊपर से घर का विवाद और रोज नए विवादों का जन्म.
मायावती के भी बहुत सारे लोग उनकी मनमानी की वजह से पार्टी छोड़कर भाजपा में पहले ही जा चुके हैं. अब और किसी पार्टी में दम बचा भी नहीं है. अत: अमित शाह की रणनीति कारगर सिद्ध होती जा रही है. वैसे यह सब पूर्वानुमान है क्योंकि भाजपा ने जन सामान्य की समस्या को हल करने के लिए अभीतक कोई भी कारगर कदम नहीं उठाये हैं. कुछ लोग रीता को भावी राज्यपाल के रूप में देख रहे हैं जैसे कि पूर्व में किरण बेदी को पांडुचेरी का राज्यपाल बनाकर उन्हें पुरस्कृत किया जा चुका है.
खैर चाहे जो हो अब राजनीति में नैतिकता की उम्मीद करना बेकार है. येन केन प्रकारेण सत्ता प्राप्त कर लेना या सत्ता के करीब चिपके रहना ही मुख्य उद्देश्य रह गया है. वैसे भी गडकरी जी के अनुसार वे हमारे चार काम कर देते हैं और हम उनके.
राजनीति में बस अब ‘राज’ बाकी रह गया है ‘नीति’ गायब है. राष्ट्र भक्ति, देश भक्ति, समाज सेवा, राष्ट्र सेवा सब की परिभाषाएं बदलती रहती हैं. हम सब इंतज़ार करते रहेंगे कि कब कोई बड़ा नेता आएगा और चमत्कार करेगा. उम्मीद पर दुनिया कायम है हम उम्मीद का दामन नहीं छोड़ सकते. आशावादी बने रहना चाहिए. कुछ अच्छे की उम्मीद में जीना ही जीवन है. अन्यथा सत्य तो हम सब जानते हैं. बड़े बड़े दिग्गज भी ढेर हुए हैं और समय के बहाव में कोई भी शेर बन कर सामने खड़ा हो जाता है.
समै समै सुन्दर सबै, रूप कुरूप न कोय.
जित जेती रूची रुचै, तित तेती तित होय.
जय श्रीराम! जय उठापठक वाला उत्तर प्रदेश !
-जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर

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