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सरसो के फूलों से पूछा – तू क्यों आज उदास है,
तुम तो मेरे प्रिय कृषक के हिय हुलस के पास है,
आज तितली या मधुप ने प्यार से देखा नहीं,
या किसी ने छेड़ डाला, बस वही अहसास है.
बादलों के बूँद से डर क्या बिखर तू जाएगी?
शीत की ठंढी हवाएं, तुझको आ सहलाएगी,
सूर्य की किरणे तुम्हे ही, प्रात में नहलाएगी.
कवि नयन की आश है, तू यूं ही खिलखिलाएगी.
गेहूं की बलियाँ मुस्काती, खलिहानों में जाएगी,
अपने तन को चूर्ण बनाकर, पेट की आग बुझाएगी.
चना, मटर, मसूर के पौधे, हंसमुख बालक से दिखते
सूरज की किरणों की रौनक, खेतों में ही है रुचते.
मेथी, धनिया, पालक, मिर्ची, मन को बहुत लुभाती है,
साफ़ पानी से रोज नहाकर, बाजारों में जाती है.
कृषक ह्रदय विदीर्ण होते, अपनी फसल लुटाने में,
मिहनत का गर मूल्य मिले न, क्या है हाड़ कंपाने में !
मिहनत का गर मूल्य मिले न, क्या है हाड़ कंपाने में !
– जवाहर लाल सिंह
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