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प्रभुता पाई जाहि मद नाहीं

jls
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गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में बहुत पहले लिख दिया था –
नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं, प्रभुता पाई जाहि मद नाहीं.
अर्थात संसार में ऐसा कोई नहीं है जिसको प्रभुता पाकर घमंड न हुआ हो

आम आदमी पार्टी को दूसरी बार के दिल्ली विधान सभा के चुनाव के बाद जब ७० में से ६७ सीटें मिली थी तो अरविन्द केजरीवाल ने शपथ ग्रहण समारोह के दिन ही कहा था. हमें बहुत बड़ा बहुमत और बहुत बड़ी जिम्मेवारी मिली है. पर इस बहुमत का अहं हमारे पास नहीं होना चाहिए! अहम् किसी के लिए भी विनाश का कारण होता है. पौराणिक और ऐतिहासिक पात्रों के चरित्र से हम यही समझ पाए हैं. पर ऐसा बिलकुल सत्य है कि प्रभुता, पद, सम्मान, यश आदि प्राप्त हो जाने के पास सबके पास अहंकार आ ही जाता है. भगवान राम के परम भक्त हनुमान जी को और श्री बिष्णु भगवान के परम भक्त नारद जी के मन में भी अहंकार का भाव आ ही गया था, जिसे भगवान ने खुद ही लीला करके अहंकार को मिटाया भी था. रावण, कंस, हिरन्यकश्यप आदि तो राक्षस कुल से थे तो उनका अहंकार चूर होना ही था. अभी हम केजरीवाल जी पर आते हैं. ६७ सीट पाने के बाद उनपर और उनके विधायकों/मंत्रियों पर कई बार अनेक प्रकार के आरोप लगे…. पहले उन्होंने उनका बचाव किया… बाद में दोषी साबित हो जाने के बाद या तो हटाया या कानूनन पदत्याग करना पड़ा.
कई बार बिना पर्याप्त सबूत के विरोधियों पर आरोप लगाते रहे. जिसके चलते उन्हें कोर्ट या कोर्ट के बाहर माफी भी माँगनी पड़ी है. अपनी पार्टी के प्रभावशाली लोगों को एक-एक कर नाराज करते चले गए या पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाते रहे. योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण इनको मदद करनेवालों में से थे, पर उन्हें पार्टी से बाहर निकाल दिया. कपिल मिश्रा चाहे जिसके बहकावे मे बोलते रहें पर फ़िलहाल केजरीवाल की बोलती बंद करनेवालों में से एक वह भी हैं, जो पार्टी से सस्पेंडेड होकर बागी का रोल निभा रहे हैं. अंतिम कील के रूप में कुमार विश्वास रहे जिन्हें राज्य सभा की सीट की उम्मीद थी और केजरीवाल ने उन्हें नाराज करते हुए गुप्ता द्वय को दे दिया. जाते जाते चुनाव आयोग के अध्यक्ष ए. के. जोती साहब ने २० विधायकों पर लगे लाभ के पद के मामले में भी अपना फैसला सुनाते हुए विधायक पद के लिए अयोग्य करार कर दिया. अभी मामला राष्ट्रपति के पास है, जानकार बताते हैं चुनाव आयोग का फैसला मानने के लिए राष्ट्रपति भी बाध्य हैं. अभी मामला कोर्ट में भी चल रहा है. फैसला क्या होगा यह तो भविष्य बताएगा पर केजरीवाल को मुश्किल में डालने के लिए यह फैसला काफी है.
वैसे हाल फिलहाल में प्रधान मंत्री श्री मोदी ने भी iCreate का उद्घाटन करते हुए कहा था – मैंने i को जानबूझकर छोटा रखवाया क्योंकि I अगर बड़ा हो जाता है अहंकार का बोध होता है. मगर का ऐसा है क्या? प्रधान मंत्री हर काम की सफलता का श्रेय खुद ही लेते हैं. अपने भाषणों में भी ज्यदातर मैं का इस्तेमाल करते हैं. चलिए उनकी बात हम यहाँ क्यों करें? वे तो संत फ़कीर हैं! उनकी तुलना यहाँ क्यों?
दूसरी बात – एक कहावत है “जल में रहे मगर से बैर?” यह भी उचित नहीं. लगभग सभी लोग समझ चुके हैं और मगर के सामने सर झुका कर खुद ग्रास बन जाते हैं या बना लिए जाते हैं. यह कैसे हो सकता है कि पूरे देश की राजधानी दिल्ली में भाजपा की सरकार हो वहां के तख़्त पर विश्व विजेता बैठा हो, और उसके ही अपने घर में जो कि एक सम्पूर्ण राज्य भी नहीं है, उसका शासन एक अदना सा आम आदमी पार्टी का नेता के हाथ में हो और वह अच्छे-अच्छे काम करके मुंह चिढ़ाता रहे…. गंदी बात!
अब आते है वर्तमान विषय पर- रवीश कुमार के ही शब्दों में – “हर सरकार तय करती है कि लाभ का पद क्या होगा, इसके लिए वह कानून बनाकर पास करती है. इस तरह बहुत से पद जो लाभ से भी ज़्यादा प्रभावशाली हैं, वे लाभ के पद से बाहर हैं. लाभ के पद की कल्पना इसलिए की गई थी कि सत्ता पक्ष या विपक्ष के विधायक सरकार से स्वतंत्र रहें. क्या वाक़ई होते हैं? बात इतनी थी कि मंत्रियों के अलावा विधायक कार्यपालिका का काम न करें, सदन के लिए उपलब्ध रहें और जनता की आवाज़ उठाएं. सदन चलते नहीं और लाभ के पद के नाम पर आदर्श विधायक की कल्पना करने की मूर्खता भारतीय मीडिया में ही चल सकती है. जब ऐसा है तो फिर व्हीप क्यों है, क्यों व्हीप जारी कर विधायकों को सरकार के हिसाब से वोट करने के लिए कहा जाता है. व्हीप तो खुद में लाभ का पद है. किसी सरकार में दम है क्या कि व्हीप हटा दे. व्हीप का पालन न करने पर सदस्यता चली जाती है. बक़ायदा सदन में चीफ़ व्हीप होता है ताकि वह विधायकों या सांसदों को सरकार के हिसाब से वोट के लिए हांक सके. अगर इतनी सी बात समझ आती है तो फिर आप देख सकेंगे कि चुनाव आयोग या कोई भी दिल्ली पर फालतू में चुनाव थोप रहा है जिसके लिए लाखों या करोड़ों फूंके जाएंगे. अदालती आदेश भी लाभ के पद को लेकर एक जैसे नहीं हैं. उनमें निरंतरता नहीं है. बहुत से राज्यों में हुआ है कि लाभ का पद दिया गया है. कोर्ट ने उनकी नियुक्ति को अवैध ठहराया है, उसके बाद राज्य ने कानून बना कर उसे लाभ का पद से बाहर कर दिया है और अदालत ने भी माना है. फिर दिल्ली में क्यों नहीं माना जा रहा है? कई राज्यों में retrospective effect यानी बैक डेट से पदों को लाभ के पद को सूची से बाहर किया गया. संविधान में प्रावधान है कि सिर्फ क्रिमिनल कानून को छोड़ कर बाकी मामलों में बैक डेट से छूट देने के कानून बनाए जा सकते हैं. कांता कथुरिया, राजस्थान के कांग्रेस विधायक थे. लाभ के पद पर नियुक्ति हुई. हाईकोर्ट ने अवैध ठहरा दिया. राज्य सरकार कानून ले आई, उस पद को लाभ के पद से बाहर कर दिया. तब तक सुप्रीम कोर्ट में अपील हो गई, सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार भी कर लिया. विधायक की सदस्यता नहीं गई. ऐसे अनेक केस हैं.
2006 में शीला दीक्षित ने 19 विधायकों को संसदीय सचिव बनाया. लाभ के पद का मामला आया तो कानून बनाकर 14 पदों को लाभ के पद की सूची से बाहर कर दिया. केजरीवाल ने भी यही किया. शीला के विधेयक को राष्ट्रपति की मंज़ूरी मिल गई, केजरीवाल के विधेयक को मंज़ूरी नहीं दी गई.
मार्च 2015 में दिल्ली में 21 विधायक संसदीय सचिव नियुक्त किए जाते हैं. जून 2015 में छत्तीसगढ़ में भी 11 विधायकों को संसदीय सचिव नियुक्त किया जाता है. इनकी भी नियुक्ति हाईकोर्ट से अवैध ठहराई जा चुकी है, जैसे दिल्ली हाईकोर्ट ने दिल्ली के विधायकों की नियुक्ति को अवैध ठहरा दिया.
छत्तीसगढ़ के विधायकों के मामले में कोई फैसला क्यों नहीं, कोई चर्चा भी क्यों नहीं? जबकि दोनों मामले एक ही समय के हैं. मई 2015 में रमन सिंह सरकार ने 11 विधायकों को संसदीय सचिव बना दिया. इसके बारे में किसी को कुछ पता नहीं है. न्यू इंडियन एक्सप्रेस में 1 अगस्त 2017 को ख़बर छपी है कि छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने सभी संसदीय सचिवों की नियुक्ति रद्द कर दी है क्योंकि इनकी नियुक्ति राज्यपाल के दस्तख़त से नहीं हुई है. दिल्ली में भी यही कहा गया था. हरियाणा में भी लाभ के पद का मामला आया. खट्टर सरकार में ही. पांच विधायक 50 हज़ार वेतन और लाख रुपये से अधिक भत्ता लेते रहे. पंजाब हरियाणा कोर्ट ने इनकी नियुक्ति अवैध ठहरा दी. पर इनकी सदस्यता तो नहीं गई. राजस्थान में भी दस विधायकों के संसदीय सचिव बनाए जाने का मामला चल ही रहा है. पिछले साल 17 नवंबर को हाईकोर्ट ने वहां के मुख्य सचिव को नोटिस भेजा है. इन्हें तो राज्य मंत्री का दर्जा दिया गया है. मध्य प्रदेश में भी लाभ के पद का मामला चल रहा है. वहां तो 118 विधायकों पर लाभ के पद लेने का आरोप है. 20 विधायकों के लिए इतनी जल्दी और 118 विधायकों के बारे में कोई फ़ैसला नहीं? 2016 में अरुणाचल प्रदेश में जोड़ तोड़ से बीजेपी की सरकार बनती है. सितंबर 2016 में मुख्यमंत्री प्रेमा खांडू 26 विधायकों को संसदीय सचिव नियुक्त कर देते हैं. उसके बाद अगले साल मई 2017 में 5 और विधायकों को संसदीय सचिव नियुक्त कर देते हैं. अरुणाचल प्रदेश में 31 संसदीय सचिव हैं. वह भी तो छोटा राज्य है. वहां भी तो कोटा होगा कि कितने मंत्री होंगे. फिर 31 विधायकों को संसदीय सचिव क्यों बनाया गया? क्या लाभ का पद नहीं है? अरविंद केजरीवाल की आलोचना हो रही है कि 21 विधायकों को संसदीय सचिव क्यों बनाया? मुझे भी लगता है कि उन्हें नहीं बनाना चाहिए था. पर क्या कोई अपराध हुआ है, नैतिक या आदर्श या संवैधानिक पैमाने से? केजरीवाल अगर आदर्श की राजनीति कर रहे हैं, इसलिए उन्हें 21 विधायकों को संसदीय सचिव नहीं बनाना चाहिए था तो फिर बाकी मुख्यमंत्री आदर्श की राजनीति नहीं कर रहे हैं?” जयहिंद! तो कहना पड़ेगा न?
– जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर.

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